Wednesday 28 September 2011

तन-मन के साज़ पर .... रंग, धुन और नृत्य



जानते हो ...
बीती रात गए
मन के आँचल में
अनगिनित ख्वाब
सजाये मैंने
तुम्हारे लिए .......
कभी इधर
कभी उधर
न जाने कितने रंग बिखरे
मैंने अपनी चाहत के
पर कोई भी रंग
तुम्हें ना भाया
क्यूँ ...... ?
______

आज मन
फिर उदास है
लगा की कोई
धुन गुनगुनाऊं
अपने तन के साज़ पे
कोई गीत लहराऊं
शायद
इसे ही सुन
तुम आ जाओ
मेरे साथ दो कदम चलकर
मेरी खामोशियों को
सुन पाओ ....
समझ पाओ .....

बोलो आओगे क्या ...... ?

गुन्जन
२८/९/११

Tuesday 27 September 2011

दलदली यादें



इस थमी-सी लचर ज़िन्दगी
से ही तो परेशान हैं सब
पुरानी बूढ़ी हो चुकी यादें
दरकी हुई शाखों से लिपटी हुई
किस पल में हमें धरती पर ला पटकें
हम खुद भी तो नहीं जानते
__________

पकी उम्र की दहलीज़ पर खड़ी
..... वेश्या सी
अपने पेशेवर अंदाज़ में
नैनों के कटाक्ष,
उँगलियों की हरारत,
लाल - रिसते होठों से -
फाड़ खाने को उतारू
ये गलीज़ चुगलखोर ....यादें
लाल रसीले गुलाब की -
चादर से लिपटी हुई ,
पुरानी कब्र से उठती
लोबान की खुशबु सी ही
गमकती रहती हैं ये .... यादें
जिसके चारों तरफ
बिखरे से पड़े रहते हैं - हम
__________

क्यूँ .... ?
क्यूँ नहीं निकल पाते हम
इन दलदली यादों से बहार
क्यूँ बिखर बिखर जाते हैं
हम इनके सामने
क्यूँ सारी तेज़ी, सारी चपलता
सारा आत्मविश्वास
सब धरा का धरा रह जाता है
इनके सामने
पल-पल इनमें धंसते हुए
पल-पल इनसे बाहर आने की कोशिश में
कब हम भी उन जैसे हो जाते हैं
खुद भी नहीं जानते ..

यादों की दलदली सतह पर डूबते - उतारते
खुद ही के लिए एक नया दलदल बनाते
दलदल से हम ......

गुंजन
२६/९/११

Saturday 24 September 2011

" प्यार "



हाँ देव
प्यार वही है
जो इस
पल - छिन
बदलती
दुनिया ने
मुझमें देखा ..
जो तुम्हारे
आमूल - चूल
अस्तित्व ने
मुझसे पाया ..
क्यूंकि -
मैं ही तो हूँ
प्यार
______

इस धरा पर
सदियों से
ठहरी हुई -
मूर्त रूप में
सिर्फ
..... मैं ही हूँ
" प्यार "

गुंजन
१८/९/११

Friday 23 September 2011

आंसू



कल बड़ी देर तक
एक आंसू
मेरी आँख की कोर पर
अटका रहा
भरमाया सा
कई रोज़ बाद
तुझे देखा था
शायद इसलिए भी
पगला है .....
आज फिर
न जाने कितनी देर तलक
तेरी राह जोहता रहा

वाकई पागल है
तभी तो - आंसू है
बौराया सा .....

गुंजन
१६/९/११

Wednesday 21 September 2011

तुम्हारे लिए .......



रात होते ही
सितारों को टांग देती हूँ " मैं "
आसमान में हाथ बढ़ा कर
तुम्हारे लिए .......
मैं नहीं तो मेरे दुपट्टे के
सितारे ही सही
कोई तो हो जिनसे लिपट कर
तुम चैन की नींद सो पाओ .....

गुंजन
१६/९/११

Tuesday 20 September 2011

घमंडी यादें



प्रश्न तो वहीँ खड़ा है ना
यक्ष की भांति .... अनुत्तरित
ये यादें होती ही क्यूँ हैं .. ?
किसी के जाने के साथ
ये भी क्यूँ नहीं चली जातीं
क्यूँ नहीं जीने देती ये हमें
क्या रात ... क्या दिन .. !!
नहीं है हमें इनकी ज़रूरत
आखिर क्यूँ नहीं समझतीं .. ?
जब भी बेशर्म बन धकेलते हैं
हम इन्हें दरवाजे से बाहर
ये उतनी ही द्रुत गति से
पलट वार करती हैं
क्या दुसरे ... क्या तीसरे ... और क्या चौथे
जिस पहर भी आँख खुले
ये मुहँ बाये सामने खड़ी होती हैं
क्यूँ......?

___________

कहा ना ... चली जाओ
जिसके साथ तुम आयीं थीं
उसी के पास .. वापिस
तुम्हारे ना होने पर भी
मैं अकेली नहीं ......

समझना होगा तुम्हें
मेरा "मैं" मेरे पास है
और उसे कोई नहीं छीन सकता मुझसे
स्वयं ... तुम भी नहीं

....घमंडी यादें !!!!!!!

गुन्जन
२०/९/११

Monday 19 September 2011

मैं तुमसे प्यार करती हूँ



तुम्हें छू कर
तुमसे गुज़रती हूँ
न जाने क्यूँ ?
मैं ..... तुमसे
इतना प्यार करती हूँ

गुंजन
19/9/11

Sunday 18 September 2011

उलझी हुई गुत्थियाँ



कभी कभी सोचती हूँ
तो लगता है कि
ये गुत्थियाँ उलझी ही रहें
तो बेहतर है
सुलझे हुए ज़ज्बात कभी कभी
उलझा जाते हैं
खुद ही को
एक खालीपन का एहसास
छोड़ जाते हैं हम ही में कहीं
कि अब क्या...?
कि अब क्या बचा है ....... नया करने को

बेहतर है इसकी उलझी गांठों में
ढुंढते रहें हम बीते दिनों को
..... अच्छे या बुरे
जैसे भी हैं - आखिर अपने तो हैं
जो ये भी सुलझ जायें
तो गांठ (जेब) में बचेगा क्या .... ?
.... निरा खालीपन !!
.... सूनापन !!

जो तुम्हारे आने से पहले था - जीवन में
या था भी ...... पता नहीं

गुन्जन
१६/९/११

Friday 16 September 2011

मौन के भी शब्द होते हैं



हाँ मौन के भी "शब्द" होते हैं
और बेहद मुखर भी
चुन -चुन कर आते हैं ये उस अँधेरे से
जहाँ मौन ख़ामोशी से पसरा रहता है
बिना शिकायत -
बैठे-बैठे न जाने क्या बुनता रहता है .. ?
शायद शब्दों का ताना-बना

और ये शब्द विस्मित कर देते हैं
तब.... जब वो सामने आते हैं
प्रेम की एक नयी परिभाषा गढ़ते हुए
अथाह सागर ... असीमित मरुस्थल ... जलद व्योम
न जाने कितना कुछ
अपने में समेटे हुए .. छिपाए हुए
ओह ...... !!

जब सुना था उन्हें .... तब रो पड़ी थी मैं
हाँ मौन के भी शब्द होते हैं
और बेहद मुखर भी
कभी सुनना उन्हें
रो दोगे तुम भी ...... जानती हूँ मैं
अभी भी कितना कुछ समेटे हैं अपने भीतर
भला तुम क्या जानो .. ?

गुन्जन
१६/९/११

Thursday 15 September 2011

मैं बोनसाई नहीं ..... कदम्ब हूँ !!



तो आपको क्या लगता है...?
क्या मेरे शब्दों में
मेरे भावों में वो गहराई है..?
निश्चय ही - मेरे शब्द बोनसाई नहीं हैं
क्यूंकि भावों की कोम्पलें
नित नवीन प्रफुल्लित होती हैं ..
जडें भी बहुत गहरे तक हैं कहीं -
शायद इसलिए भी
_________

अब छांट भी तो नहीं सकती
वर्ना छिपे दर्द टीसने लगेंगे..

मैं चिनार नहीं
.........कदम्ब हूँ !!

जिसने अपने आगोश में
प्रेम की पराकाष्ठता को लिया था
इसलिए मैं बोनसाई बन ही नहीं सकती
बनना भी नहीं चाहती

निह्श्चय ही प्रेम विराट है
और द्रड़ भी.....
....... अब भी कोई शक है क्या ?

गुन्जन
१४/९/११

Wednesday 14 September 2011

ख्वाइशों की पौध


इमरोज़-अमृता
सोनी-महिवाल
हीर-राँझा
एडवर्ड-सिम्सन

विश्व - प्रसिद्ध
इन प्रेमी जोड़ों के बीज जो आप अपने
बंजर खेतों में बोने चली हो
उसमें एक बीज मेरे नाम का भी रोप लेना- "रश्मि दी"
भले ही मैं अकेली सही
पर खुद पर इंतना यकीं है
कि आपके सपनों के खेतों का
उत्क्रष्ट वृक्ष .... "मैं ही बनूँगी"
________

जब भी कोई पौध डिगने लगेगी अपने पथ से
हाड़ तोड़ बर्फीली हवाओं के डर से
तब मैं माँ बन उसे अपने आँचल में छिपा लूंगी
जब भी कोई झूमती-बलखाती बेल
मुरझाने लगेगी..तपते सूरज की गर्मी से
तब मैं पिता बन उसे अपनी छावं में ले लूंगी.....
कुछ भी - कैसे भी करके.. उन्हें
वख्त से पहले विदा ना होने दूंगी
(जैसा कि इतिहास गवाह है)
जो स्वप्न आपने अपनी आँखों में देखा है
उसके निशां ना मैं खोने दूंगी ......

बस इतनी सी गुज़ारिश है...
जो न्याय खुद के साथ न कर पाई
वो शायद अगले जन्म में कर पाऊँ
अब बस इतनी सी ही ख्वाइश है....


गुन्जन
१४/९/११

(मेरी ये कविता आदरणीय "रश्मि दी" को समर्पित है )

Saturday 10 September 2011

फिर क्यूँ .......कृष्णा !!



तुम ....... तुम्हारे ख्याल
महकते रहते हैं
हरदम
मेरे आस-पास
तो बोलो भला
तुम्हारे ख्यालों में लिपटी
फिर क्यूँ न महकूँ
मैं भी .....

_________


पारिजात के पुष्पों
से ही झड़ रहे थे
मेरे ख्वाब बीती रात गए
फिर क्यूँ तुमने इन्हें
शब्दों में गूँथ लिया
फिर क्यूँ इक नया ख्वाब
मेरी बंद होती
पलकों पे सजा दिया
फिर क्यूँ ......?

गुन्जन
१०/९/११

Friday 9 September 2011

अंतिम सांस ....... तुम्हारे लिए



तुम मेरे हो ...और रहोगे
अंतिम सांस तक
मैं जानती हूँ मेरे हमनफ़ज़
पर अब ना मैं वो हूँ
और ना तुम वो रहे
फिर क्यूँ ढूंडते हो यूँ तुम मुझे
जो बीत गया..... उसे बीत जाने दो
जो बह गया...... उसे बह जाने दो
हाँ तुम्हारी चौखट पर
मैं ज़रूर आऊँगी
आ करके वहां अपने
सर को नवाऊँगी
जो साँस तुम्हारे लिए लेती थी
मैं हर लम्हा
______

उसे अंत समय
तुम्हें सौंप के जाऊँगी

गुंजन
७/९/११

Wednesday 7 September 2011

मुझसे ही जन्मे हो तुम



क्या ईश्वर के सिवा
कहीं कुछ और नहीं
क्या मैं और तुम नहीं
नहीं हूँ मैं कोई आत्मा
न ही तुम कोई परम-आत्मा
मैं तो बस मैं हूँ
और तुम........
तुम तो कहीं हो ही नहीं
मुझसे ही जन्मे हो तुम
मुझ में ही समाये हो तुम
जो मैं हूँ तो तुम हो
जो मैं नहीं .......तो तुम भी नहीं
कहीं भी नहीं ........

गुंजन
५/९/११

Sunday 4 September 2011

अथ-अकथ सारा


मुझको जानना
मुझको समझना
गर इतना आसान होता
तो तुम "मैं" ना हो जाते देव ?
मैं तो इक व्योम हूँ
इक निरंकार हूँ
मैं ही आकार
मैं ही प्रकार हूँ
मैं ही शब्द
मैं ही निःशब्द हूँ
मैं ही अनंत
मैं ही मरुस्थल हूँ
मैं ही गृह
मैं ही नक्षत्र हूँ
मुझमें समाई है ये स्रष्टि सारी
मुझमें बसी है ये दुनिया तुम्हारी
क्यूँ चाहते हो मुझसे दूर जाना ?
क्यूँ चाहते हो मैं तुम्हें भूल जाऊँ ?
तुमसे ही तो है ये ब्रह्माण्ड सारा
तुमसे ही तो है मेरा अथ-अकथ सारा
तुम हो तो मैं हूँ
जो तुम नहीं तो मैं भी नहीं
कहीं भी नहीं______

गुंजन
५/९/११

Thursday 1 September 2011

रंगरेज़ हो तुम



तुम्हें देखा है मैंने
कि वो हो तुम
तुम्हीं हो.....
कोई और नहीं
क्यूँ सोचते हो तुम
कि तुम मुझे याद नहीं
मेरी जान हो तुम
मेरा अरमान हो तुम
मेरी रग रग में बिखरी
गर्म खून की
हर इक बूँद हो तुम
मेरी नीम आँखों में
लहराता समंदर हो तुम
मेरी महकती हुई
सांसों का हर इक
आता-जाता
क्षण हो तुम
मेरी बलखाती बाहों की
लहरों में उतराता
जीवन संगीत हो तुम
मेरी रातों की सरगोशियों
में खिलता हुआ
इक ख्वाब हो तुम
मेरे अंतहीन आसमान में
नित नया रूप लेते
आयाम हो तुम
मेरे ब्रह्माण्ड के
रचयिता हो तुम
मेरी गति हो तुम
मेरी प्रकर्ति हो तुम
मेरे जीवन की धुरी
मेरा गीत हो तुम
मेरा अपना
मेरा सपना
मेरा धैर्य
मेरा इंतज़ार हो तुम
हाँ.....हाँ जानम

मेरी ज़िन्दगी के
हर पल के
हर रंग के
हर रूप के
'रंगरेज़' हो.... 'तुम'

गुंजन
१/९/११