Tuesday 29 November 2011

मन की किरचें



क्या कभी मन की किरचों से दो-चार हुए हैं आप .. ?
मैं हुई हूँ .... और हर रोज़ होती हूँ

नन्ही - नन्हीं किरचें ... जिन्हें हम
अस्तित्वहीन समझ झुठला देते हैं
वो कब अंदर ही अंदर हमें लहू - लुहान कर देती हैं
हम जान भी नहीं पाते
पर जब भावनाओं का ज्वार - भाटा
पूरे वेग से हमें अपने नमकीन पानी में
बहा ले जाता हैं .... तब उन अस्तित्वहीन
किरचों का अहसास होता है हमें

क्यूँ नहीं उन्हें हम पहले ही बीन लेते .. ?
आखिर क्यूँ उन्हें हम अपने मन में जगह दे देते हैं .. ?
क्यूँ भूल जाते हैं कि पाहुना दो दिन को आये
तब ही तक भला लगता है
पर जब पावँ पसार डेरा जमा ले
तब घर क्या .. !! द्वार क्या .. !!
सब समेट कर ले जाता है - अपने साथ
और हम रीते हाथों द्वार थामे .
..... खड़े के खड़े रह जाते हैं !!


गुंजन
२९/११/११

5 comments:

  1. सब समेट कर ले जाता है - अपने साथ
    और हम रीते हाथों द्वार थामे .
    ..... खड़े के खड़े रह जाते हैं !! भावो का सुन्दर चित्रण...

    ReplyDelete
  2. ओहो .....दर्द ही दर्द समेटे हुए ......

    ReplyDelete
  3. BEETA HUA KABHI BEETtA NAHI...SADA YAAD RAHTA HAI.

    SUNDER PRASTUTI.

    ReplyDelete
  4. वाह..दर्द का एहसास भरे हुए...
    बहुत सुन्दर रचना ...

    ReplyDelete
  5. इसी का नाम तो जिंदगी है....

    गहरे भाव लिए सुंदर रचना।

    ReplyDelete