Saturday 30 April 2011

प्यार के अलाव में सिंकती..........."एक लड़की"

क्या कभी महसूस किया है आपने ? .....प्यार की गर्माहट को, उसकी आंच, उसकी तपन को.....जिसके अलाव में सिंक कर दो दिल पकते हैं....और इन पके हुए दिलों से निकलने वाली सोंधी-सोंधी सी खुशबू में खींचे चले आते हैं - दो जिस्म, दो आत्मायें ।

उसी प्यार के अलाव में उस मासूम-सी, दिलकश लड़की का दिल सिंक कर पक गया था.......और उसकी आत्मा से उठी उस मीठी-मीठी सी खुशबू से, खिंचा चला आया था - "वो"....."वो" जिससे वो मासूम-सी, दिलकश लड़की प्यार करती थी ।

एक होता है न वो.....पागलों के सरीखा प्यार.....उसी की हंसी हँसना, उसको एक नज़र देख बावला-सा हो जाना, अच्छे-भले खुशदिल चेहरे पर, उसको उदास देख स्याही-सी पोत लेना, गर्म-तपती, लू भरी दोपहर में, रोज़ बिना किसी कारण उसके घर के सामने से गुज़रना - बिना ये सोचे की लोग क्या कहेंगे । पर नहीं उसे कोई लेना-देना नहीं था इस समाज से , इस दुनिया से क्यूंकि उस मासूम को तो प्यार हो गया था, 'प्यार'.....जिसके अलाव में उसका दिल क्या.....उसकी आत्मा तक सिंक गयी थी ।

पूरे २ साल बाद आया "वो" पूरे २ साल बाद, उसके बुलाने पर .....हाँ उस बावली के तो वो २ साल, उसका एक-एक दिन, एक-एक लम्हा किस कदर बिता, उसका पासंग-भर भी अंदाज़ा वो सिरफिरा नहीं लगा सकता था ।

तय हुए दिन और वक़्त पर मिला "वो".....उस निश्छल, स्नेही आत्मा से, एक पतली-सी सुनी, निर्जन पगडण्डी पर । जिसके दोनों ओर युक्लिप्तिस के लम्बे पेड़ , कतारबद्ध सेना के जवानों-से, एक-सी मुद्रा में खड़े थे । उस मासूम-सी लड़की के, अंतस से उठने वाली प्यार की सोंधी-सोंधी सी महक ने उन घमंडी युक्लिप्तिस के पेड़ों को भी, आलिंगनबद्ध-हो, स्तंभित कर दिया था । उसके प्यार ने उन मद-भरे पेड़ों का दिल भी जीत लिया था । तभी तो वो बिना एक साँस लिए.....निश्चल खड़े हो गए थे, उस तपस्विनी की सात्विकता देखकर ।

लड़के ने उस मासूम से बिना लाग-लपेट प्रश्न किया - "हाँ बोलो ! क्या कहना चाहतीं थीं, तुम मुझसे?" हारे..........थम-सी गयी वो अतृप्त इन दो लफ़्ज़ों को सुन कर । उसकी पुरजोर आवाज़ को सुन कर ।

कभी महसूस किया है आपने वो लम्हा जब - एक आवाज़, सिर्फ एक आवाज़ उतरती चली जाती है, आपकी रूह के अंदर- बर्फीली-सी, तीखी धार की तरह । आपके अंतस में गूंजने लगती है, सन्नाटे में गिरी किसी सुई की तरह । कभी महसूस किया है.........दिल के सूनेपन को, जो एक व्योम में उपजे खालीपन से भी ज्यादा तीखा होता है । उसी सूनेपन, खालीपन को भेदती वो दिलकश, पुरजोर-सी आवाज़ .......

हमेशा की तरह लड़की के पास कुछ नहीं था कहने के लिए, कुछ भी नहीं । हर बार की तरह शब्द फिर चूक गए थे उसके.....बाकि थे तो "आंसू"......पर उन आंसुओं की भाषा वो पगला क्या समझता, "वो" जो खुद ही से आशना न था, वो क्या समझ पाता.....उन रूहानी बातों को, उससे उपजने वाली रौशनाई को......"जिससे उसका जीवन संवर जाना था" । उन खामोश-सी, निश्चल आँखों की लिपि को, उसके चेहरे की प्यार भरी लुनाई को, उन "मानिनी" के मान को ......?

"वक़्त नहीं है मेरे पास, जो कहना है जल्दी कहो ।" तडाक से दो शब्द उस मानिनी के ह्रदय पर पड़े, जिसकी पीड़ा का दंश वो न झेल पाई.....और टूट कर वहीँ बिखर गयी.....कहने को तो कुछ था ही नहीं, क्या कहती भला वो ? लड़का जैसा आया था , वैसे ही कोरे ह्रदय वापस चला गया ।

उसकी प्यार भरी बिनाई उधर कर बिखर गयी । जिसको बिना था उसने एक-एक फंदा रोज़, नित-नए-कोरे सपनों के मोतियों को पिरोते हुए । जिस बंधन की चाह, उसके अंतस में कब-से थी........न जाने कब-से......उस बंधन की आस तक, अब ख़त्म हो गयी थी ।

बिन कहे, बिन सुने, सब ख़त्म हो गया था ...... सब कुछ ...... उसका अंतर तक ..... उसकी अंतरात्मा तक ।

गुंजन
27/4/2011
Wednesday

Thursday 21 April 2011

एक खुबसूरत पर...... उदास-सी शाम

शाम का धुन्दल्का रसोई से निकलते धुऐं में कुछ और गहराने लगा था । सड़क पर खेलते बच्चे अपनी माओं के पुकारने पर बेमन-से घरों को वापस जाने लगे थे । रसोई की खिड़की पर खड़ी लड़की की आंखें....घडी के काँटों सी किसी को तेज़ी से तलाशने लगीं ।

तभी माँ ने आवाज़ दी - टमाटर घिस दिया क्या ? लड़की ने घबरा के कहा - हाँ माँ बस हो ही गया टमाटर के साथ - साथ उसने अपना हाथ भी घिस लिया था.....नज़र खिड़की पर जो टिकी थी । माँ से नज़र बचा के.....सड़क से गुजरने वाले हर राहगीर को वो उचक कर देखती । कोने में खड़ी पान की गुमटी पर आने वाले हर शख्स में....वो 'उसको' खोजती ।

माँ ने फिर आवाज़ लगायी - सब्जी छौंक दी क्या ? लड़की ने फिर कहा- हाँ माँ । कसे हुए टमाटर को गर्म तेल की कढ़ाई में डालते हुए....उसने अपनी कुछ खून की बूंदें भी उसमें मिला दी थीं । हाथ कुछ ज्यादा ही घिस गया था । पट-पट की आवाज़ के साथ टमाटर कढ़ाई में भूनने लगा और साथ-ही-साथ उसका खून भी टमाटर के मसाले में एक-रस होने लगा । पर लड़की का सारा ध्यान कोने में सजी उस पान की गुमटी पर ही था । कुरते-पज़ामे में गुज़रते हर शख्स में वो 'उसको' खोजती ।

अचानक पान की उस छोटी सी गुमटी पर उसे इक सफ़ेद सा साया नज़र आया.....आह! लड़की के अंदर से इक आवाज़ आई.... और आंखें ख़ुशी के कारण कुछ और भर-सी आयीं । सफ़ेद कुरते-पज़ामे ने दुकानदार से इक cigratte मांगी....और माचिस भी....सुलगा के अपने होठों से लगा ली । सफ़ेद कुरते-पज़ामे में सजा वो देव-सरीखा मानुष...अचानक ही....उस cigratte के तम्बाकू के साथ-साथ...उसकी आत्मा को भी जलाने लगा ।

ऊँगली से टपकने वाले खून के साथ-साथ....लड़की की आँखों से टपकने वाला दर्द भी उस टमाटर के मसाले में घुलने लगे । तभी माँ ने फिर आवाज़ दी -सब्जी बन गयी क्या ? आंसू पोंछती लड़की ने धीमे से कहा -हाँ माँ । बस बन ही गयी ।

ऊँगली का दर्द अब बेमानी हो चला था.....सीने में उठते उस सोंधे - सोंधे से, बेतरतीब दर्द के आगे ।
उसने अपने आप से पूछा - क्यूँ ? आखिर क्यूँ होता है ...प्यार ऐसा ?

गुंजन
20/4/2011
Thursday

Saturday 16 April 2011

मैंने अंजलि में थाम रखे हैं , कुछ बीती हुई शामों के सुख .........


मैंने अंजलि में थाम रखे हैं
कुछ बीती हुई शामों के सुख....

तेरे घर में लगे गुडहल के पौधे से
बस एक फूल भर चुराने का सुख

वो तेरी गली से गुज़रते हुए तुझे
बस एक नज़र देख पाने का सुख

तेरे उस अमिट से नाम को उंगली से
धरती पे बार-बार लिख के मिटाने का सुख

वो अचानक सामने से तुझको आते देख
घबरा के थम सा जाने का सुख

तेरे चेहरे पे खिली मुस्कुराहट को - बेमतलब
यूँ ही, अपने होठों की हंसी बनाने का सुख

मैंने अंजलि में थाम रखे हैं
कुछ बीती हुई शामों के सुख.....

गुंजन
16/4/2001
Saturday

Thursday 14 April 2011

हरसिंगार



न जाने तुम मुझे....उस देव-सरीखे
हरसिंगार जैसे क्यूँ लगते हो ?
जो दिवा के आ जाने पर
बदल लेता है अपना रंग-रूप

अलग कर देता है
वो सारे स्मृति-चिन्ह
जो रात्रि से गले मिलने पर
खिल उठते हैं...उसके मन-आंगन में
एक-एक लम्स को
झाड़-बुहार कर अलग कर देता ह
वो अपने-आप से

कैसे भूल जाता है वो
उन स्वप्नीले स्पर्शों को,
उस अनछुए-से बंधन को,
जिसमें बांध कर पा लेता है
वो अपने-आप को.....
कितना निर्मोही होता है न वो
और कितना निष्ठुर भी...

पर येः बात
वो रात्रि क्यूँ नहीं समझ पाती ?
दिवा के बीतने पर
वो फिर आ जाती है
उस देव सरीखे हरसिंगार से मिलने
जो एक बार फिर
रात्रि को अपनी व्याकुलता दिखला कर
बांध लेगा अपने बाहु-पाश में-

और रात्रि फिर
ठगी-सी बंधती चली जाएगी
उसके मोह-पाश में....

न जाने तुम मुझे....उस देव-सरीखे
हरसिंगार जैसे क्यूँ लगते हो ?
जो दिवा के आ जाने पर,
बदल लेता है अपना रंग-रूप

गुंजन
15/4/2011

Monday 11 April 2011

कितने बुरे हो तुम.....क्या तुम जानते हो ?




अब तुम मुझसे कहते हो
कि तुम्हें मुझसे प्यार नहीं

कितने बुरे हो तुम.....क्या तुम जानते हो ?
बेहद क्रूर और निर्दयी भी.....

कितनी आसानी से
दिल की हर बात कही थी तुमने
और सुनी थी मैंने -
चुपचाप, बिना एक साँस लिए

थम-सी गयी थी मैं
उस बीते हुए कल की तरह....
जो आपने अंदर न जाने कितनी
उथल-पुथल समेटे हुए- चुपचाप
हर आने-जाने वाले को देखता रहता है

समेट सा लिया था अपने-आप को
उस साँझ की तरह
जो रात के आ जाने पर
सिमट जाती है - अपने-आप में
खामोश सी, सकुचाई हुई
बिना एक शब्द बोले

हमेशा से ही थाम लेते हो- तुम
मुझे यूँ ही,
अपने शब्दों के जाल में
और मैं - निःशब्द, ठगी-सी
बंधती चली जाती हूँ
तुम्हारे मोह-पाश में.....

अब तुम मुझसे कहते हो
कि तुम्हें मुझसे प्यार नहीं

कितने बुरे हो तुम.....क्या तुम जानते हो ?
बेहद क्रूर और निर्दयी भी.....

गुंजन
9/4/2011

वो लाल चमड़े से मढ़ा, छोटा सा डब्बा .......



वो लाल चमड़े से मढ़ा, छोटा सा डब्बा...
अलमारी के कोने में बेसुध पड़ा था

समेट के प्यारी सी यादों को तेरी
न जाने कबसे वो सोया हुआ था
देख के मुझको खिल सा गया वो
पास मेरे कुछ सिमट आया वो....

छु के देखा तो वो अब भी वहीँ था
बस ये कमबख्त - वक़्त ही
कुछ बदल सा गया था
वो तेरी लिखावट से सजा छोटा सा कागज़....
उसकी तहों में कुछ खो सा गया था

देखा तो उस-पे मेरा नाम छपा था
जो तेरे ही हाथों से कभी उसपे सजा था
सिमट सी गयी क्यूँ उसे देखकर 'मैं'
एक अनजानी ममता से क्यूँ महक सी गयी 'मैं'

जो वक़्त न आएगा कभी लौट के
एक उसके इंतज़ार में क्यूँ
ठहर सी गयी.....'मैं'

गुंजन
४/४/२०११

नारी को धरती न कहते....


नारी को धरती न कहते
न देते पुरुष को गगन का उदाह्र्ण
अगर मिल जाते वो-यूँ ही
तो बदल जाते जीवन के हर रंग.....

होली के रंगों में रंगती,
अपनी चुनरी को वो पगली दुल्हन
साफा इन्द्रधनुषी बांधता,
प्रिया से मिलने को उल्लसित मन

द्वार पर रसीली रंगोली सजाती,
करती अपना जीवन-धन अर्पण
रखता उसके मान को भी वो,
अपने से ऊपर-वो पगला मन

सूर्य की रश्मियाँ अठखेलियाँ करतीं,
हर दिन-हर पल उनके आंगन
नित रास रचाते यमुना तट पर,
वो बंसी की धुन पर होके मगन

नारी को धरती न कहते
न देते पुरुष को गगन का उदाह्र्ण
अगर मिल जाते वो-यूँ ही
तो बदल जाते जीवन के हर रंग.....

गुंजन
२९/३/११

आखिर, तुम क्यूँ नहीं समझते....?


अपनी बात को कहने का
हुनर होना चाहिए
हर किसी के पास
वो ज़हीन अल्फाज़ नहीं होते

वो शख्स जो बना था पत्थर का
उसपे किसी के आसूँ क्या असर करते

जो न आशना है खुद ही से आज तक
उसका दावा है कि वो
सफह-ए-हस्ती को जाना करते

ख़त्म हो गयी जिसके इंतज़ार में
ये ज़िन्दगी हैरां
न जाने क्यूँ अब वो
ज़िन्दगी का है साथ माँगा करते

ये बात नहीं है सिर्फ इस जन्म की
ये तो जन्मों का है नाता
तुम क्यूँ नहीं समझते
आखिर तुम क्यूँ इतने हैरां होते......?

गुंजन