Saturday 4 February 2012

स्त्री मन की पीड़ा



पीड़ा जब अति रूप धारण करती है
तब गर्भ से जन्मती हूँ .. मैं
शब्दों का एक गोला
नर्म, गुदाज़, लिजलिजा,
मेरे खुद के खून से सना हुआ
जिसे देखने भर से
घिन्नाने लगती है ये दुनिया
पर मेरा क्या
मैंने तो कोख में पाला है इसे
खुद के खून से सींचा है इसे
कभी मेरे मन की पीड़ा को
महसूस करके तो देखो
एक बार उसे जन्मके तो देखो
प्राण तज़ दोगे
वहीँ के वहीँ ..

शब्दों को जन्मना आसान नहीं होता
खासकर तब जब लहुलुहान हो जाती हैं
हमारी संवेदनायें
तब जब खून से लिसड़ जाती हैं
हमारी भावनायें ..

गुंजन .. ४/२/१२

8 comments:

  1. शब्दों को जन्मना आसान नहीं होता
    खासकर तब जब लहुलुहान हो जाती हैं
    हमारी संवेदनायें
    तब जब खून से लिसड़ जाती हैं
    हमारी भावनायें ..

    सटीक ..हर सृजन में पीड़ा होती है

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  2. सृजन बिना पीड़ा के संभव नहीं है.................बड़े दिन बाद आपकी पोस्ट पढ़ने को मिली.

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    1. :) निधिजी पढ़कर अच्छा लगा की आपको मेरी पोस्ट का इंतज़ार था .. शुक्रिया

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  3. हर शब्द स्त्री मन की पीड़ा की व्याख्या कर रहा है.....

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  4. सुंदर एवं गहन अभिव्यक्ति

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  5. बगैर दर्द के... बगैर तकलीफ के... बगैर पीडा के कोई नया सृजन नहीं हो सकता।

    बेहतरीन रचना। गहरे भाव।

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  6. शब्दों को लेखन का रूप देना ही पीड़ा से भरा हुआ हैं ...लेखनी में दर्द शब्दों से समझ आता हैं .....आभार

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  7. कुछ पीडाएं साझी भी होतीं हैं सखी

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