Wednesday 22 June 2011

मैं और मेरा मन........



निर्बाध, निर्मल, नदी सी- मैं
तू है, पहाड़ी सोता- मेरे मन,
मैं बहती जाऊँ कल-कल, छल-छल
एक तू ही अविचल, सिमटा-सा- मेरे मन

जाड़ों की गुनगुनी धुप सी-मैं
तू भरी जेष्ठ सा, तपता- मेरे मन
ठिठुरते मौसम को, मुझसे ताप मिले
एक तू ही क्यूँ ? चैन न पता- मेरे मन

विस्तृत, नीलाभ गगन सी- मैं
तू है, स्वछंद, पक्षी सा- मेरे मन
मैं धीर धरे, नित ताकूँ तुझको
एक तू ही अधीर हो, उड़ता जाये- मेरे मन

कदम्ब की शीतल, छावं सी- मैं
तू एक भटकता मुसाफिर- मेरे मन
मेरी छावं तले, सबको ठौर मिले
एक तू ही क्यूँ ? ठहर न पता- मेरे मन

-गुंजन
१०/५/११
Tuesday

No comments:

Post a Comment