Monday 6 February 2012

स्त्री



मर्मान्तक पीड़ा से गुज़रना पड़ता है
दिन-रात मुझे
क्यूंकि .. स्त्री हूँ मैं
हाँ इक गुनाह हूँ मैं
समाज़ की हर सही
और गलत ज़रूरतों को
पूरा करने वाला
एक अनचाहा .. गर्भ
गर्भ में पलूं
तो .. क्यूँ ?
और जो पालूँ
तो बेटा जनूं
वाह्ह री दुनिया !!!
अज़ब है ये दुनिया
माँ को पूजे
और बेटी को दुत्कारे

हहह !!!
गलीज़, लिजलिजी
दोगली दुनिया

गुंजन .. २/२/१२

8 comments:

  1. स्त्री मन पीड़ा को बहुत अर्थपूर्ण शब्दों से वयक्त किया है आपने.....

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  2. दोगली दुनिया...क्या खूब कहा है...ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...

    नीरज

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  3. गहरे भाव लिए सुंदर रचना।

    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है। चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......

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  4. gahare bhaav ....gahan vedna bhare ...aur do took spasht dristikon ...bahut badhia rachna ...

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  5. बेहद गहन और सशक्त अभिव्यक्ति।

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  6. मार्मिक अभिव्यक्ति ... सच में दोहरे मापदंड हैं इस दुनिया के ... इस पुरुष प्रधान समाज के ...

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  7. दुर्भाग्य की बात है कि समाज में
    अभी भी अंतर की खाई विद्यमान है !
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
    आभार !

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  8. हां दुनिया दोगली जरुर हैं .....पर स्त्री खुद में सम्पूर्ण हैं ...एक ताकत हैं अपने आप में ....समाज कल भी ऐसे ही था और आज भी वैसा ही हैं ...बदलाव हमको खुद के भीतर से लाना होगा ....आभार

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