Sunday, 23 October 2011

" दीपावली "



कल रात स्वप्न में
दीपावली आई
रंग बिरंगे परिधानों में सजी
ढेर सारी रौशनी बिखेरती
झिलमिलाते आभूषणों से लकदक
पर पता नहीं क्यूँ बेहद उदास .. ?
आँखें छलकी जातीं थीं उसकी
बहुत पहले की बात है
सालों पहले इक शाम आई थी
उसके दरवाज़े पर ___

दो अनजान पाहुनों को साथ में लिए
इक निःशब्द शाम गुज़ारी थी उसने
..... उनके साथ
थमी सी - पर इतनी खुबसूरत
... जैसी आज तक कभी नहीं जी

उदास कल्पित दीपावली बोली -
" अब मन नहीं होता
उस गली, उस शहर में जाने का
बहुत याद आती है उन अनजान पाहुनों की
जाने किसके घर का दिया थे
हर रोज़ जलते थे .... पर कभी नहीं मिल पाते थे
आज भी जलते हैं .....
उनकी जलन अब मुझसे देखी नहीं जाती
जो इस बरस तुम शहर जाना
तो इक नन्हा सा दिया मेरे आंगन में भी धर आना
उनके खामोश पर पवित्र, प्यार के नाम का ..... "

गुँजन
२३/१०/११

Saturday, 22 October 2011

आओगे क्या .. ?



जब जानते हो
तब जाते ही क्यूँ हो ..?
क्या मेरा बिलखना
तुम्हारे रिसते घावों को सहलाता है
अगर ऐसा है.....
तो ज़िन्दगी भर रोने को तैयार हूँ मैं
जो मंज़ूर हो .. तो आ जाओ

आओ तो पहले ...
फिर जाने की बात करना
थोड़ा मरहम मेरे ह्रदय पर भी लगा जाना
जो तुम्हारे तलवों में
रिसते घावों की वजह से
खुद भी टीसने लगा है

बोलो आओगे क्या .. ?

गुँजन
२२/१०/११

कृष्ण - कृष्ण कहलाऊँ



खुद को राधा कह पाऊँ
वो श्रेष्ठता कहाँ से लाऊँ
इतना तुम्हें चाहूँ
फिर भी ना तुम्हें पा पाऊँ .. ?

तुम्हारे नाम का सुमिरन करती
मैं तुम सी बन जाऊँ
ऐसा अब मैं क्या करूँ .. ?
जो स्वयं भी -
कृष्ण - कृष्ण कहलाऊँ

गुँजन
२१/१०/११

Thursday, 20 October 2011

कैनवास



कितने चेहरे आये
मेरी जिंदगी के
कैनवास में
पर तेरे वज़ूद के सिवा
किसी और में
भर ही नहीं पाई
अपनी मोहब्बत के
रंग ..... मैं

गुंजन
२७/९/११

Monday, 17 October 2011

माफ़ करोगे क्या मुझे ... मेरे प्रिय !!!!



आज धरा शांत है ....
कुछ कहने को नहीं बचा
... अब उसके पास
निस्तेज देखती है वो आज सूर्य को
कि कितना कुछ छुपा है
....... सूर्य के भीतर भी कहीं
जब कभी मन उचाट हो उठता है उसका
सूर्य का अंतहीन आह्वाहन करते - करते
एक अंतहीन इंतज़ार में चलते - चलते
तब बरस पड़ती है - वो
टूट कर बिखर जाती है - वो
और तब ..... सूर्य का प्रणय निवेदन
फिर उसे जीवन दान देता है !!

धरा है ना .....
पल में द्रवित हो फिर कह उठती है
माफ़ करोगे क्या मुझे ... मेरे प्रिय !!!!

गुँजन
१३/१०/११

Thursday, 13 October 2011

अब तो जागो ..... मेरी प्यारी धरणी




कितनी सरलता से खुद को धरा बना लिया
और उसको जलता सूरज
कोई शक नहीं कि तुम कोमल धरणी हो
.... और वो सूर्य
पर जलती तो हमेशा से धरती ही आई है ना
सूरज कबसे जलने लगा भला
पुरुष रूप है ना....
अपना ताप तो दिखायेगा ही
बिन बात के धरा को तो वो जलाएगा ही
समंदर में डूबने का सिर्फ दिखावा करता है वो
आँखों से आँसू भला कभी छलके हैं उसके

प्यारी धरती
वो कहीं नहीं जाता
एक तरफ तुमसे नजरें चुराता है
तो दूसरी तरफ जाके किसी और के
गले लग जाता है
विश्वास करना अच्छी बता है
पर अन्धविश्वास .. ना - ना
कभी नहीं
जागो - जागो अब तो जागो
..... मेरी प्यारी धरणी

गुंजन
११/१०/११

Monday, 10 October 2011

आधुनिक प्रेम


हम कितना भी आधुनिक क्यूँ ना हो लें
पर अपनी सीमायें कैसे भूल सकते हैं भला
तपन की आंच
..... और स्नेहिल स्पर्श
निश्चय ही दोनों प्रेम का स्वरुप हैं
पर आधुनिकता इस पर
हावी नहीं होने पाई ... कभी नहीं
भले ही कितनी दोपहरें बिता लें
...... किसी के साथ
पर खुबसूरत पलों का खून
कभी नहीं रिसने दिया ...
क्यूंकि प्यार को देखा है मैंने
कुछ पलों के लिए नहीं
कुछ सालों के लिए नहीं
कुछ जन्मों के लिए भी नहीं
एक दुसरे में आत्मसात होने जैसा होता है ये प्यार
( आत्मसात - आत्मा का संगम )

जिससे हो सर्वस्व हमारा
जिससे ही वर्चस्व हमारा
भला उसका खून ....... ना ना
ये तो संभव ही नहीं
और जो ऐसा करते हैं ...... वो पता नहीं
पर हाँ प्यार तो नहीं ही करते
.... कतई नहीं !!

गुंजन
७/१०/११

Friday, 7 October 2011

सिली सी हँसीं



तुमने जो देखी होती
..... जो सुनी होती
मेरे मन की आवाज़
तो ये रूहें कभी न भटकतीं
तुम और मैं
कभी यूँ ना जी रहे होते
खाली, भीगे-से शरीर को लिए हुए
अब इन होठों पर कैसी भी हँसीं खेले
वो बेज़ान तो होनी ही है
..... सिली-सिली सी
_____

दीवार पर लटके मौसम की तरह
जो कहीं से आकर उससे निकली
कील पर अटक गया हो
_____

एक ऐसे सपने की तरह
जो पूरा होकर भी
बस सपना बन ... रह गया हो
!!

गुँजन
७/१०/११

Tuesday, 4 October 2011

कुछ तो है मेरा .... बस मेरा


अपनी धुन
अपना साज़
अपना अंदाज़
यही ज़िन्दगी है मेरी
तू नहीं तो तेरी
बेरुखी ही सही
कोई तो है - मेरी
..... बस मेरी

गुन्जन
३०/९/११

Saturday, 1 October 2011

तुम्हारे लिए .......



मेरी हर शोखी
हर अदा है
तुम्हारे लिए .......
ये मैं नहीं
तुम ही तो हो
जानां
जो मेरे जिस्म पर
काबिज़ हो
रूह बनकर .....

गुन्जन
१/१०/११