Thursday 29 December 2011

उसके प्रेम और हमारे प्रेम में ये अंतर कैसा ..... ?????



प्रेम अपने आप में ही अदुतीय होता है
चाहे वो कोई भी करे
कृष्णा ने गीता का सार कह दिया
तो वो परालौकिक की श्रेणी में आ गए
और जो इससे परे हैं परन्तु प्रेम में रत हैं
..... क्या उनका प्रेम अमर नहीं ?
प्रेम में - हर "पुरुष" .. "कृष्ण" स्वरूप हैं
और हर "नारी" स्वयं में .. "राधा "

प्रेम के विविध रंग - रूप - स्वरुप होते हैं
और शायद हर कोई इनमें
कभी ना कभी ढला भी होता है
रंगा भी होता है ..
जिया भी होता है ..
इसलिए प्रेम की व्याख्या का अधिकार
हम किसी से नहीं छीन सकते ...

मानवीय प्रेम कभी सम्पूर्णता की श्रेणी में नहीं आता
क्यूंकि वो मानवीय है ?
और ईश्वरीय प्रेम स्वयं में परालौकिक है
क्यूंकि वो ईश्वर ने किया है ?
वाह री दुनिया !!!!!
अज़ब है ये दुनिया !!!!!

पर ईश्वर तो हमीं ने चुना है ..... हमीं में से किसी इक को
फिर उसके प्रेम और हमारे प्रेम में ये अंतर कैसा ..... ?????

गुंजन
४/११/११

Wednesday 28 December 2011

नारी जीवन का सार



क्यूँ बदलती हो खुद को तुम इतना
बार बार .. यूँ ही
तुम जैसी हो .. वैसी क्या कम हो
जो इतने रंगों को पहन लेती हो
अपनी आँखों में .. सतरंगी खवाब बुन कर
कभी नदिया का किनारा बन ..
कभी किसी पहाड़ का सहारा बन ..
तो कभी बिखर जाती हो .. हरी-पीली दूब बन
पर तुम्हारी आंखें जाने क्यूँ चुप सी रहा करती हैं .. ?
जैसे ठहरी हो उसमें तुम्हारे बचपन की कोई हंसी
और .. और .. तुम्हारी काली भवों के बीच
वो जो चवन्नी भर कर सिंदूर है
अहा .... कैसे आंखें जुड़ा जाता है
जानती हो हमेशा से देखा करती थी मैं तुम्हें
इन्हीं सिंदूरी वस्त्रों में ..
.. और खुद को भी

इसलिए ही तो पहचान हो तुम मेरी
हाँ मान हो तुम .. मेरी

गुंजन
२७/१२/११

Friday 23 December 2011

हाँ किसी एक दिन वो वाकई पागल .. हो ही जायेगा



कहते हैं हर लिखने वाला पागल होता है
वाकई पागल ही होता है वो
.. नज़्म .. शेर .. कवितायें .. दोहे
पागलों की तरह ना जाने
क्या - क्या लिखता ही रहता है
या इश्क की कोई दीवानगी .. जो बेवज़ह, बेसाख्ता
उससे ना जाने क्या-क्या लिखवाती है
या शायद कोई रिसता दर्द ..
आह्ह !!!!!
या .. या शायद कोई रूहानी अहसास ..
या शायद कोई बेतरतीब पागल भटकती हुई .. आत्मा

शायद वो पागल हो जायेगा ..
हाँ किसी एक दिन वो वाकई पागल .. हो ही जायेगा

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गुंजन
२२/१२/११

मन है आज फिर .. नन्हे पंखों वाली बच्ची बन जाने का


मन है आज फिर
उजले पंखों वाली
बच्ची बन जाने का
सुनहरी रंगबिरंगी धूप को
नन्ही मुट्ठी में भर लेने का
तारों भरे आकाश में
चंदा मामा की सवारी करने का
chewing gum को गालभर
फुलाने की शर्त लगाने का
झूले पर आकाश भर
लम्बी पेंगे लेने का
बिन बात के इतराने का
भाई-बहनों संग फिर से
गुत्थम-गुत्था करने का
आँख भर आँसू रोने का
दादी को खिजाने का
माँ को चिढ़ाने का
औ पापा से डर जाने का
हाँ .. मन है आज फिर
नन्हे पंखों वाली __ बच्ची बन जाने का

गुंजन
२२/१२/११

Wednesday 21 December 2011

मन


सब कहते हैं कविता सच का आइना होती है
पर पता नहीं क्यूँ
मुझे तो आज सुबह से बस इससे
भ्रम की बू आ रही है
हर गीत हर कविता झूठ में लिपटी हुई,
ये किसी निराशावादी दृष्टीकोण की दस्तक नहीं ....... पर सच यही है
lovelly lines .. awsumm ..
हह !! सब बकवास मीठा-मीठा, कोसा-सा
मन को लुभाने के लिए हम क्या क्या नहीं करते
कविता और कुछ शब्दों से खेलने से बेहतर
और भला हो भी क्या सकता है
ठण्ड से कंकपाती - इठी हुई सर्द उँगलियाँ ..
एक काला-सा keyboard
पागलों की तरह दौड़ते हुए कुछ बेतरतीब-से ख्याल
और उस पर ये मुआ facebook
ज़बरदस्ती मन को गूँथ-गूँथ कर सब उगलवा लेता है
काश ..काश की हम ना होते
काश ..काश की तुम ना होते
तो ना होता ये पागल-सा मन भी मेरा .. है ना !!

ओह्ह्ह !!!!!!!
कहीं आपने कुछ सुना तो नहीं .. ?
नहीं ना !!

गुंजन
२१/१२/११

Saturday 10 December 2011

एक पाती .. पांचाली के नाम



खुद को बांटना तुम्हारी मज़बूरी थी
मैं जानती हूँ पांचाली
" जीता तो तुम्हें अर्जुन ने ही था ..
और पति रूप में वरा भी तुमने अर्जुन को ही था "
ताउम्र .. प्रेम भी तो बस तुम उसी से करती रहीं
परन्तु उसके कहे की लाज जो रखनी थी तुमने
ना माता का आदेश
ना ही पूर्व जन्म में पाया नीलकंठ से वर
कुछ भी तो ना माना था तुमने
बस अगर कुछ माना .. कुछ जाना
तो वो था पार्थ का तुमसे .. प्रथम अपने लिए कुछ मांगना
और उन्होंने माँगा भी क्या ?
तुमसे .. तुमको ..
हा रे !!!!!!
ये धरती क्यूँ ना फट गयी .. ?
ये आसमान क्यूँ ना गिर गया .. ?
.....

निश्चय ही तुम पतिव्रता थीं
तभी तो पति के कहे का पालन किया
सती थीं .. तभी तो वानप्रस्थ जाते वक़्त
सबसे पहले तुमने अपनी देह को त्यागा
.....

मैं जानती हूँ
मैं समझती हूँ सखी .. क्यूंकि मैं एक नारी हूँ
तुम्हारे मन की भाषा .. तुम्हारे तन की लाज
उसके मौन को पढ़ा है मैंने
ये तो बस तुम ही कर सकती थीं
प्रेम बलिदान मांगता है
पर तुमसे जो माँगा गया .. और तुमने जो दिया
निश्चय ही उसकी कोई व्याख्या नहीं ..

तभी तो आज तक तुमसा ना कोई हुआ है
और ना ही होगा .. मेरी प्रिय सखी !!

गुंजन
१०/१२/११

Thursday 8 December 2011

बर्फ, सपने और .. प्यार



तुम्हारे घर की ढालू छत से पिघलती
बर्फ की कांच सी पारदर्शी बूंदें
कंगूरे बन सज जाती हैं
मेरे मन के किनारों पर ..

फिर इन महीन कांच के कंगूरों पर
सजाती हूँ मैं अपने सपने
नन्हे - नन्हे .. दीप जैसे
कुछ - कुछ तुम जैसे
कुछ - कुछ मुझ जैसे

अधूरे .. पिघलते हुए
ठंडी बर्फ की मन्दिद
खुद ही में घुलते हुए
________

क्या होंगे वो पूरे .. ?
तुमसे जुड़े मेरे कुछ अनचीन्हे से सपने !!
तुम्हारे घर की ढालू छत पर
कभी तो पिघलेंगे वो
हाँ जब हमारे प्यार की
लजीली - सजीली धुप निकलेगी
हाँ तब ..
हाँ शायद .. तब

गुंजन
६/१२/११

Tuesday 6 December 2011

क्यूंकि मैं " गुंजन " हूँ



परी की तरह तो मैं भी पली
... पाल भी रही हूँ
संस्कारों की चाभी तो मुझे में भी भरी गयी
..... भर भी रही हूँ
पर मैं भी हूँ .... हाँ मैं हूँ
ये ना जाने क्यूँ .. कभी भूल ही ना पाई
अब तो याद भी नहीं कि
किसने क्या कहा ... क्या सिखाया
पर खुद को हमेशा जाना .. हमेशा समझा
खुद का होना शायद दुनिया के
ना चाहते हुए भी उन पर
ज़बरदस्ती थोपा
और आज मैं हूँ .. हाँ मैं हूँ
.....
दुनिया के ना - हाँ चाहते हुए भी
दुनिया के ना - हाँ के बीच में भी
अपने अस्तित्व
अपने पूर्ण रुपेर्ण स्वाभिमान के साथ
मैं हूँ ..
हाँ मैं हूँ ..
क्यूंकि मैं " गुंजन " हूँ

गुंजन
७/१२/११