Wednesday 30 November 2011

प्रथम उड़न



एक दिन तो होना ही था तुम्हें पूर्ण
लगता है आज वो दिन आ गया
अपने खो गए आत्मबल को
आज मैंने भी .. पा लिया
जिस दिन तुम बिन जीने की कल्पना की थी
कुछ ऐसा ही अविकल .. बेचैन
निराशा से भरा पल था वो
_________

पर तुम्हारे लिए ..
निश्चित ही एक नयी उड़ान
असीम आकाश में तुम जैसे
नादान परिंदे की - प्रथम उड़न
चलो जो भी हो .. तुमने अपने पंख फैलाये तो
खुद को मुझ से मुक्त कर
अपने नये आयाम .. बनाये तो

जाओ खुश रहो .. जहाँ रहो .. जैसे भी रहो
सुखी , संतुष्ट और संपन्न रहो

गुंजन
३०/११/११

Tuesday 29 November 2011

मन की किरचें



क्या कभी मन की किरचों से दो-चार हुए हैं आप .. ?
मैं हुई हूँ .... और हर रोज़ होती हूँ

नन्ही - नन्हीं किरचें ... जिन्हें हम
अस्तित्वहीन समझ झुठला देते हैं
वो कब अंदर ही अंदर हमें लहू - लुहान कर देती हैं
हम जान भी नहीं पाते
पर जब भावनाओं का ज्वार - भाटा
पूरे वेग से हमें अपने नमकीन पानी में
बहा ले जाता हैं .... तब उन अस्तित्वहीन
किरचों का अहसास होता है हमें

क्यूँ नहीं उन्हें हम पहले ही बीन लेते .. ?
आखिर क्यूँ उन्हें हम अपने मन में जगह दे देते हैं .. ?
क्यूँ भूल जाते हैं कि पाहुना दो दिन को आये
तब ही तक भला लगता है
पर जब पावँ पसार डेरा जमा ले
तब घर क्या .. !! द्वार क्या .. !!
सब समेट कर ले जाता है - अपने साथ
और हम रीते हाथों द्वार थामे .
..... खड़े के खड़े रह जाते हैं !!


गुंजन
२९/११/११

Friday 25 November 2011

पहाड़ों की .. रानी



कुछ पीले ... कुछ गीले
कुछ हरे से हैं मेरे पहाड़
और इनकी पथरीली छतों पर सूखती हूँ मैं
हाँ कभी कभी एक टुकड़ा धूप बन जाती हूँ .. "मैं"

कभी इजा के बोलों में
कभी बाबा के श्लोकों में
कभी अम्मा की गाली में
तो कभी सरुली की ठिठोली में
ना जाने कितने सुरों में ढल जाती हूँ .. "मैं"

कभी खेतों में रोटी ले जाती हूँ मैं
तो कभी पुरानी उधरी ऊन से
मोजा बीनने लग जाती हूँ मैं
कभी पत्थरों से पटी छतों पर
बड़ी-पापड़ तोड़ने बैठ जाती हूँ मैं
ना जाने कितने रूपों में ढल जाती हूँ .. "मैं"

कभी आमा की कच्ची रसोई में
बड़ी निर्लजता से घुस आती हूँ मैं
तो कभी एक - वस्त्रा बन
बोदी का कर्त्तव्य निभाती हूँ मैं
कभी दही सने नीबुओं से
भाई बहनों को ललचाती हूँ मैं
तो कभी अन्नपूर्णा बन बिन बुलाये
मेहमानों की पंगत जिमाती हूँ मैं
ना जाने कितने रंगों में रंग जाती हूँ .. "मैं"

कभी ढोलक पर पड़ती चौड़े हाथों की थाप
तो कभी बेटी को विदा करती इजा का विलाप
हर रंग में .. हर रूप में .. हर सुर में .. हर ताल में
जब चाहूँ तब इन पहाड़ों की "रानी" बन जाती हूँ .. "मैं"

गुंजन
२४/११/११

Tuesday 22 November 2011

इंतज़ार ही रहो तो अच्छा है ..



ना !!!!!!!
तुम सपना .... न बनना
सपने रात के बीतते - बीतते
टूट जाते हैं.....
बादल भी ना बनना
इक बार बरस के
वो भी चूक जाते हैं
इंतज़ार ही रहो तो
.. अच्छा है
क्यूंकि वो कभी -
कहीं नहीं जाता
हरदम साथ रहता है
" तुम " बन कर
तुम्हारा कभी ना ख़त्म होने वाला
इंतज़ार बन कर

हाँ .. मुझे है तुम्हारा इंतज़ार
हमेशा की तरह
ख्वाबों में ही सही
पर तुम्हें पाने का .... इंतज़ार !!

गुन्जन
३/१०/११

प्यार का अंतहीन सफ़र ....



न सवालों का ज़वाब दो
न जवाबों से सवाल पूछो
अपने आप सारे प्रश्न चिन्ह
सिमट जायेंगे
और तुम फिर स्वतंत्र हो जाओगे
अपने आयामों को नापने के लिए
न बनो इस अंतहीन सफ़र के मुसाफिर
ये सफ़र विक्षिप्त कर देता है
सारी संवेदनाओं को
छिन्न-भिन्न कर देता है
जीते जी मानवीय इक़छाओं को
नरक में ला खड़ा करता है

क्यूंकि
इस सफ़र का ना कोई
..... आदि है
..... ना अंत

गुन्जन
१४/९/११

हाँ वो इक ख्वाब ही तो है



इक ख्वाब ही तो हैं
जिनमें वो जब मन होता है
तब चला आता है
... चहलकदमी करते हुए
अब यहाँ से भी उसे
खाली हाथ लौटा दूँ
नहीं .. इतनी कमज़र्फ मैं तो नहीं
इक उसी की जुस्तजू में तो
रातों का इंतज़ार किया करती हूँ
कि कब ख्वाब आयें
और कब .. वो
जानती हूँ
कि ख्वाब कभी पूरे नहीं होते
______

हाँ वो इक ख्वाब ही तो है
चलता - फिरता ख्वाब
इसलिए उस मखमली ख्वाब को
ख्वाबों में ही जी लेती हूँ मैं
खुद भी इक अदना - सा
ख्वाब बन कर .....

गुंजन
११/१०/११ —

मेरी आवारगी



आवारा धुन्ध -
फिर आकर लिपट गयी
मेरे वज़ूद के गिर्द
एक बार फिर
मुझे आवारा बनाने के लिए
तुम्हारी गली .....
तुम्हारे घर की दहलीज़ पर
पागलों की तरह
फिर .....
एक बार फिर ..
मुझे ले जाने के लिए

वो गली जिससे कभी
मैं गुज़र न सकी
वो दहलीज़ जिसे कभी
मैं छू भी ना सकी

एक तमन्ना जो
धुआं - धुआं हो गयी
इक ख्वाइश जो
कतरा - कतरा बन बह गयी ....

गुंजन
१२/९/११ —

अहसास



बेहतरीन अहसासों की गुनगुनाहट से
फिर भीग गयी मैं .... एक बार
मोती हमेशा देर से ही मिला करते हैं
तब जब उनकी उम्मीद नहीं होती
और जब ज़रूरत नहीं होती
..... तब माला बन
हमारे गले लगना चाहते हैं
अच्छा हो जो न समेटे इन्हें
ठंडी तासीर लिए
..... ये ठन्डे से मोती
हमसे हमारे जीवन की
ऊष्मा छीन ले जायेंगे
और हम फिर एक बार
स्तब्ध ... अवाक्
बिखर जायेंगे अपनी ही जमीं पर
अपने ही ख़ाली दामन को
समेटते हुए

बेरौनक
बेआवाज़
बेवजह
फिर उसी दहलीज़ को ताकते हुए
जो न हमारी हो सकी कभी
जो हम सी न बन सकी कभी

गुँजन
२०/१०/११

है ना - कृष्णा !!



अपने वज़ूद में
तुम्हें पाना चाहा
बस यही गलती थी मेरी
तुम तो मैं ... हो ही नहीं ना
हाँ मैं ज़रूर तुम हूँ
जहाँ चाहो - पा लो
जिस रंग में चाहो - ढाल लो
है ना - कृष्णा !!

गुँजन
२१/१०/११

...काश



अपनी ज़िन्दगी को
अपने हिसाब से जीने की
शर्त रखी थी ना तुमने
जी भी रहे हो .....
अब फिर कैसी शिकायत
_______

टूटी हुई मुंडेर पर बैठी
इक नन्ही चिड़िया को
डराया था तुमने उसकी
..... एक नादानी पर
हवाओं का रुख मोड़ दिया था
तुमने अपनी .... जिद के आगे
समंदर की बेचैन लहरें भी
तुम्हारे तेज़ से सहम
...... परे हट गयी थीं
अपनी अकुलाहट को ताक़ पर धर
अपने में ही सिमट कर रह गयीं थीं

काश की ये सब न हुआ होता
काश की तुम वक़्त रहते जान जाते
काश की ये होता
काश की वो होता
अब इस काश के सिवा बचा ही क्या है
मेरे पास !!

कुछ भी , कैसे भी करके
अब इस काश को पूरा नहीं कर सकती मैं ...काश

गुंजन
४/११/११ —

पुकार


इतनी पुकार पर तो
सूरज का घमंड भी
..... पिघलने लगा
पर तुम्हें न पिघलना था
और न पिघले कान्हा .. !!

गुंजन
११/११

बोलो ...... चलोगे क्या ?



आज मन फिर कुछ लिखने को हो रहा है
क्या ..... पता नहीं
क्यूंकि लिखने का मतलब लिखना नहीं
उन शब्दों में तुमको -
तुम्हारे साथ जीना होता है
हर रोज़ जब कुछ लिखती हूँ
तो लगता है की हाँ आज तुम्हारे साथ
..... कुछ कदम चल ली
..... तुम्हारे रु-ब-रु हो ली
जिस दिन शब्द खो जाते हैं
तो लगता है कि तुम रूठ गए ..

मन है आज फिर
तुम संग दो कदम चलने का
बोलो ...... चलोगे क्या ..... !!

गुंजन
१४/११/११

कोई और नहीं है ....... कृष्णा !!



कभी चाहूँ तुम - में बसना
कभी चाहूँ तुम - सी बनना
कभी चाहूँ जी - लूँ तुमको
कभी चाहूँ पा - लूँ तुमको
हर रंग में
हर रूप में
हर चाह में
हर राह में
बस तुम हो
तुम्हीं हो
कोई और नहीं है
....... कृष्णा !!

गुँजन
२१/१०/११

Tuesday 15 November 2011

खुबसूरत तोहफा



इतना आरोप, इतना संदेह
क्यूँ ..... ?
प्रश्न तो मुझे करने चाहिए ?
आक्षेप तो मुझे करना चाहिए ?
जीवन तो मेरा बदला है ना ?
तुम्हारा कहाँ .. ?
फिर भी हमेशा की तरह कटघरे में
मैं ही क्यूँ .... ?
________

क्या मेरा दर्द ... मेरे आँसू
सब बेमानी हैं !!
हाँ कह दो कि - सब खुबसूरत धोखा हैं
ओह्ह्ह्ह !!!!!
बेहतरीन तोहफा दे दिया ... तुमने तो मुझे आज
वो भी ज़िन्दगी के इस मोड़ पर आकर
तुमसे तो ये उम्मीद ना थी
ना ... कभी नहीं
कभी भी नहीं ....... !!

..... १५/११/११

Monday 14 November 2011

मृत्यु ....



मृत्यु को कितनी बार
आमंत्रित किया है मैंने
खुद भी नहीं जानती
_______

आज फिर से तुम्हारा
आह्वाहन कर रही हूँ
आओगी क्या मुझे लिवाने
मेरी मृत्यु ..... !!

.....
१४/११

Sunday 13 November 2011

कृष्ण का अन्तर्द्वंद



व्याकुल हो ना कृष्णा
क्यूंकि चाह कर भी
वो कह नहीं पाते
.... जो कहना चाहते हो
तुम्हारा अन्तर्द्वंद रोक लेता है तुम्हें
आखिर कृष्ण हो ना ..
देवता बनने के लिए
कोई तो बलिदान देना ही होगा
वही दिया भी !!
__________

और राधा ..
इस धरा पर बरसों से
प्रेम का मूर्त रूप
तो भला उसकी आँखों में
व्याकुलता कैसी ?
अगर है भी ....... तो बस
अपने कृष्ण की अकुलाहट को सुनने की
उनके मौन को समझ पाने की

अब तो मौन तोड़ो कृष्णा ....... !!

.. २२/१०/११

Saturday 12 November 2011

मेरे अंत समय में ..... मेरे द्वारे



तुम्हें कृष्ण कहती हूँ
तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगता ना !!
कृष्ण आराध्य हैं मेरे
और तुम्हारी -
तुम्हारी आराधना की है मैंने
अब तुम्हीं बताओ
क्या फर्क हुआ
तुम में और कृष्णा में .. ?
________

अपने अंत समय कृष्ण आये थे
...... यमुना किनारे
तो शायद तुम भी आ जाओ
मेरे अंत समय में .. मेरे द्वारे

बोलो आओगे ना ... ?

.....
१२/११/११

Saturday 5 November 2011

क्या हर बार तुम्हारा देवता बनना ज़रूरी है - कृष्णा ??



कृष्ण तो स्वयं में एक प्रश्न हैं
वो भला क्या उत्तर देंगे ..
कुरुक्षेत्र में गीता का प्रवचन दे
खुद तो ईश्वर बन बैठे
पर वृन्दावन में बिलखती
राधिका को छोड़
क्या उसकी नज़र में अराध्य बन पाए !!
_________

बोलो ज़वाब दो ...... कृष्णा ??
भले ही दुनिया तुम्हें ईश्वर कह ले
भले ही वेद - पुराण तुम्हें
महानता की श्रेणी में ला खड़ा करें
पर राधिका नहीं बुला सकती
तुम्हें कभी .... दिल से - ' देव '
हाँ प्यार करती थी वो तुम्हें ... पागलों की तरह
और हर जन्म में करती भी रहेगी
पर क्या हर बार तुम्हारा
देवता बनना ज़रूरी है !!!!!!!!!!!
बोलो कृष्णा .... ??
गीता सार में आत्मा की अमरता की
दुहाई दी थी तुमने
याद है कृष्णा .. ?
तब फिर क्यूँ लौटे थे
उस उफनती यमुना के किनारे
इंतज़ार करती उस पगली राधा के पास

प्रवचन देना आसन होता है कृष्णा
पर उसे निभाना और समझ पाना - बेहद मुश्किल

.....
४/११/११

Friday 4 November 2011

पनाह

गुंजन
३/१०/११


जब आयेंगे हम
एक - दूजे की बाँहों में
देखना वख्त कहीं
थम - सा जायेगा
ये दुनिया जो खुद पर
इतराती है ..... इतना
तब हमसे मुहब्बत के लिए
पनाह मागेंगी ....

.

Thursday 3 November 2011

माँ भी मैं ..... प्रिया भी मैं



जो तुम सो जाओगे
तो मुझे कविता कौन कहेगा
तुमसे ही तो जन्मी हूँ .. मैं
जो तुम हो तो हूँ .. मैं
अजन्ता की गुफाओं में भी
तुमने मुझे बुद्ध रूप में देखा
हमेशा से जानती हूँ
ऐसा सिर्फ तुम ही कर सकते थे

माँ भी मैं
प्रिया भी मैं
बालक भी मैं
रम्भा भी मैं
हह .... और कितने रूप में ढालोगे मुझे
और कितने रंगों से रंगोगे मुझे
तुम सी बन जाऊँ
.... अब बस इतना ही चाहूँ
तुम में ही कहीं खो जाऊँ
.... हाँ बस इतना ही चाहूँ

क्या अपना-आप दोगे मुझे
क्या अपनी बाँहों में लोगे मुझे

.....
२२/१०/११