Thursday 29 December 2011

उसके प्रेम और हमारे प्रेम में ये अंतर कैसा ..... ?????



प्रेम अपने आप में ही अदुतीय होता है
चाहे वो कोई भी करे
कृष्णा ने गीता का सार कह दिया
तो वो परालौकिक की श्रेणी में आ गए
और जो इससे परे हैं परन्तु प्रेम में रत हैं
..... क्या उनका प्रेम अमर नहीं ?
प्रेम में - हर "पुरुष" .. "कृष्ण" स्वरूप हैं
और हर "नारी" स्वयं में .. "राधा "

प्रेम के विविध रंग - रूप - स्वरुप होते हैं
और शायद हर कोई इनमें
कभी ना कभी ढला भी होता है
रंगा भी होता है ..
जिया भी होता है ..
इसलिए प्रेम की व्याख्या का अधिकार
हम किसी से नहीं छीन सकते ...

मानवीय प्रेम कभी सम्पूर्णता की श्रेणी में नहीं आता
क्यूंकि वो मानवीय है ?
और ईश्वरीय प्रेम स्वयं में परालौकिक है
क्यूंकि वो ईश्वर ने किया है ?
वाह री दुनिया !!!!!
अज़ब है ये दुनिया !!!!!

पर ईश्वर तो हमीं ने चुना है ..... हमीं में से किसी इक को
फिर उसके प्रेम और हमारे प्रेम में ये अंतर कैसा ..... ?????

गुंजन
४/११/११

Wednesday 28 December 2011

नारी जीवन का सार



क्यूँ बदलती हो खुद को तुम इतना
बार बार .. यूँ ही
तुम जैसी हो .. वैसी क्या कम हो
जो इतने रंगों को पहन लेती हो
अपनी आँखों में .. सतरंगी खवाब बुन कर
कभी नदिया का किनारा बन ..
कभी किसी पहाड़ का सहारा बन ..
तो कभी बिखर जाती हो .. हरी-पीली दूब बन
पर तुम्हारी आंखें जाने क्यूँ चुप सी रहा करती हैं .. ?
जैसे ठहरी हो उसमें तुम्हारे बचपन की कोई हंसी
और .. और .. तुम्हारी काली भवों के बीच
वो जो चवन्नी भर कर सिंदूर है
अहा .... कैसे आंखें जुड़ा जाता है
जानती हो हमेशा से देखा करती थी मैं तुम्हें
इन्हीं सिंदूरी वस्त्रों में ..
.. और खुद को भी

इसलिए ही तो पहचान हो तुम मेरी
हाँ मान हो तुम .. मेरी

गुंजन
२७/१२/११

Friday 23 December 2011

हाँ किसी एक दिन वो वाकई पागल .. हो ही जायेगा



कहते हैं हर लिखने वाला पागल होता है
वाकई पागल ही होता है वो
.. नज़्म .. शेर .. कवितायें .. दोहे
पागलों की तरह ना जाने
क्या - क्या लिखता ही रहता है
या इश्क की कोई दीवानगी .. जो बेवज़ह, बेसाख्ता
उससे ना जाने क्या-क्या लिखवाती है
या शायद कोई रिसता दर्द ..
आह्ह !!!!!
या .. या शायद कोई रूहानी अहसास ..
या शायद कोई बेतरतीब पागल भटकती हुई .. आत्मा

शायद वो पागल हो जायेगा ..
हाँ किसी एक दिन वो वाकई पागल .. हो ही जायेगा

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गुंजन
२२/१२/११

मन है आज फिर .. नन्हे पंखों वाली बच्ची बन जाने का


मन है आज फिर
उजले पंखों वाली
बच्ची बन जाने का
सुनहरी रंगबिरंगी धूप को
नन्ही मुट्ठी में भर लेने का
तारों भरे आकाश में
चंदा मामा की सवारी करने का
chewing gum को गालभर
फुलाने की शर्त लगाने का
झूले पर आकाश भर
लम्बी पेंगे लेने का
बिन बात के इतराने का
भाई-बहनों संग फिर से
गुत्थम-गुत्था करने का
आँख भर आँसू रोने का
दादी को खिजाने का
माँ को चिढ़ाने का
औ पापा से डर जाने का
हाँ .. मन है आज फिर
नन्हे पंखों वाली __ बच्ची बन जाने का

गुंजन
२२/१२/११

Wednesday 21 December 2011

मन


सब कहते हैं कविता सच का आइना होती है
पर पता नहीं क्यूँ
मुझे तो आज सुबह से बस इससे
भ्रम की बू आ रही है
हर गीत हर कविता झूठ में लिपटी हुई,
ये किसी निराशावादी दृष्टीकोण की दस्तक नहीं ....... पर सच यही है
lovelly lines .. awsumm ..
हह !! सब बकवास मीठा-मीठा, कोसा-सा
मन को लुभाने के लिए हम क्या क्या नहीं करते
कविता और कुछ शब्दों से खेलने से बेहतर
और भला हो भी क्या सकता है
ठण्ड से कंकपाती - इठी हुई सर्द उँगलियाँ ..
एक काला-सा keyboard
पागलों की तरह दौड़ते हुए कुछ बेतरतीब-से ख्याल
और उस पर ये मुआ facebook
ज़बरदस्ती मन को गूँथ-गूँथ कर सब उगलवा लेता है
काश ..काश की हम ना होते
काश ..काश की तुम ना होते
तो ना होता ये पागल-सा मन भी मेरा .. है ना !!

ओह्ह्ह !!!!!!!
कहीं आपने कुछ सुना तो नहीं .. ?
नहीं ना !!

गुंजन
२१/१२/११

Saturday 10 December 2011

एक पाती .. पांचाली के नाम



खुद को बांटना तुम्हारी मज़बूरी थी
मैं जानती हूँ पांचाली
" जीता तो तुम्हें अर्जुन ने ही था ..
और पति रूप में वरा भी तुमने अर्जुन को ही था "
ताउम्र .. प्रेम भी तो बस तुम उसी से करती रहीं
परन्तु उसके कहे की लाज जो रखनी थी तुमने
ना माता का आदेश
ना ही पूर्व जन्म में पाया नीलकंठ से वर
कुछ भी तो ना माना था तुमने
बस अगर कुछ माना .. कुछ जाना
तो वो था पार्थ का तुमसे .. प्रथम अपने लिए कुछ मांगना
और उन्होंने माँगा भी क्या ?
तुमसे .. तुमको ..
हा रे !!!!!!
ये धरती क्यूँ ना फट गयी .. ?
ये आसमान क्यूँ ना गिर गया .. ?
.....

निश्चय ही तुम पतिव्रता थीं
तभी तो पति के कहे का पालन किया
सती थीं .. तभी तो वानप्रस्थ जाते वक़्त
सबसे पहले तुमने अपनी देह को त्यागा
.....

मैं जानती हूँ
मैं समझती हूँ सखी .. क्यूंकि मैं एक नारी हूँ
तुम्हारे मन की भाषा .. तुम्हारे तन की लाज
उसके मौन को पढ़ा है मैंने
ये तो बस तुम ही कर सकती थीं
प्रेम बलिदान मांगता है
पर तुमसे जो माँगा गया .. और तुमने जो दिया
निश्चय ही उसकी कोई व्याख्या नहीं ..

तभी तो आज तक तुमसा ना कोई हुआ है
और ना ही होगा .. मेरी प्रिय सखी !!

गुंजन
१०/१२/११

Thursday 8 December 2011

बर्फ, सपने और .. प्यार



तुम्हारे घर की ढालू छत से पिघलती
बर्फ की कांच सी पारदर्शी बूंदें
कंगूरे बन सज जाती हैं
मेरे मन के किनारों पर ..

फिर इन महीन कांच के कंगूरों पर
सजाती हूँ मैं अपने सपने
नन्हे - नन्हे .. दीप जैसे
कुछ - कुछ तुम जैसे
कुछ - कुछ मुझ जैसे

अधूरे .. पिघलते हुए
ठंडी बर्फ की मन्दिद
खुद ही में घुलते हुए
________

क्या होंगे वो पूरे .. ?
तुमसे जुड़े मेरे कुछ अनचीन्हे से सपने !!
तुम्हारे घर की ढालू छत पर
कभी तो पिघलेंगे वो
हाँ जब हमारे प्यार की
लजीली - सजीली धुप निकलेगी
हाँ तब ..
हाँ शायद .. तब

गुंजन
६/१२/११

Tuesday 6 December 2011

क्यूंकि मैं " गुंजन " हूँ



परी की तरह तो मैं भी पली
... पाल भी रही हूँ
संस्कारों की चाभी तो मुझे में भी भरी गयी
..... भर भी रही हूँ
पर मैं भी हूँ .... हाँ मैं हूँ
ये ना जाने क्यूँ .. कभी भूल ही ना पाई
अब तो याद भी नहीं कि
किसने क्या कहा ... क्या सिखाया
पर खुद को हमेशा जाना .. हमेशा समझा
खुद का होना शायद दुनिया के
ना चाहते हुए भी उन पर
ज़बरदस्ती थोपा
और आज मैं हूँ .. हाँ मैं हूँ
.....
दुनिया के ना - हाँ चाहते हुए भी
दुनिया के ना - हाँ के बीच में भी
अपने अस्तित्व
अपने पूर्ण रुपेर्ण स्वाभिमान के साथ
मैं हूँ ..
हाँ मैं हूँ ..
क्यूंकि मैं " गुंजन " हूँ

गुंजन
७/१२/११

Wednesday 30 November 2011

प्रथम उड़न



एक दिन तो होना ही था तुम्हें पूर्ण
लगता है आज वो दिन आ गया
अपने खो गए आत्मबल को
आज मैंने भी .. पा लिया
जिस दिन तुम बिन जीने की कल्पना की थी
कुछ ऐसा ही अविकल .. बेचैन
निराशा से भरा पल था वो
_________

पर तुम्हारे लिए ..
निश्चित ही एक नयी उड़ान
असीम आकाश में तुम जैसे
नादान परिंदे की - प्रथम उड़न
चलो जो भी हो .. तुमने अपने पंख फैलाये तो
खुद को मुझ से मुक्त कर
अपने नये आयाम .. बनाये तो

जाओ खुश रहो .. जहाँ रहो .. जैसे भी रहो
सुखी , संतुष्ट और संपन्न रहो

गुंजन
३०/११/११

Tuesday 29 November 2011

मन की किरचें



क्या कभी मन की किरचों से दो-चार हुए हैं आप .. ?
मैं हुई हूँ .... और हर रोज़ होती हूँ

नन्ही - नन्हीं किरचें ... जिन्हें हम
अस्तित्वहीन समझ झुठला देते हैं
वो कब अंदर ही अंदर हमें लहू - लुहान कर देती हैं
हम जान भी नहीं पाते
पर जब भावनाओं का ज्वार - भाटा
पूरे वेग से हमें अपने नमकीन पानी में
बहा ले जाता हैं .... तब उन अस्तित्वहीन
किरचों का अहसास होता है हमें

क्यूँ नहीं उन्हें हम पहले ही बीन लेते .. ?
आखिर क्यूँ उन्हें हम अपने मन में जगह दे देते हैं .. ?
क्यूँ भूल जाते हैं कि पाहुना दो दिन को आये
तब ही तक भला लगता है
पर जब पावँ पसार डेरा जमा ले
तब घर क्या .. !! द्वार क्या .. !!
सब समेट कर ले जाता है - अपने साथ
और हम रीते हाथों द्वार थामे .
..... खड़े के खड़े रह जाते हैं !!


गुंजन
२९/११/११

Friday 25 November 2011

पहाड़ों की .. रानी



कुछ पीले ... कुछ गीले
कुछ हरे से हैं मेरे पहाड़
और इनकी पथरीली छतों पर सूखती हूँ मैं
हाँ कभी कभी एक टुकड़ा धूप बन जाती हूँ .. "मैं"

कभी इजा के बोलों में
कभी बाबा के श्लोकों में
कभी अम्मा की गाली में
तो कभी सरुली की ठिठोली में
ना जाने कितने सुरों में ढल जाती हूँ .. "मैं"

कभी खेतों में रोटी ले जाती हूँ मैं
तो कभी पुरानी उधरी ऊन से
मोजा बीनने लग जाती हूँ मैं
कभी पत्थरों से पटी छतों पर
बड़ी-पापड़ तोड़ने बैठ जाती हूँ मैं
ना जाने कितने रूपों में ढल जाती हूँ .. "मैं"

कभी आमा की कच्ची रसोई में
बड़ी निर्लजता से घुस आती हूँ मैं
तो कभी एक - वस्त्रा बन
बोदी का कर्त्तव्य निभाती हूँ मैं
कभी दही सने नीबुओं से
भाई बहनों को ललचाती हूँ मैं
तो कभी अन्नपूर्णा बन बिन बुलाये
मेहमानों की पंगत जिमाती हूँ मैं
ना जाने कितने रंगों में रंग जाती हूँ .. "मैं"

कभी ढोलक पर पड़ती चौड़े हाथों की थाप
तो कभी बेटी को विदा करती इजा का विलाप
हर रंग में .. हर रूप में .. हर सुर में .. हर ताल में
जब चाहूँ तब इन पहाड़ों की "रानी" बन जाती हूँ .. "मैं"

गुंजन
२४/११/११

Tuesday 22 November 2011

इंतज़ार ही रहो तो अच्छा है ..



ना !!!!!!!
तुम सपना .... न बनना
सपने रात के बीतते - बीतते
टूट जाते हैं.....
बादल भी ना बनना
इक बार बरस के
वो भी चूक जाते हैं
इंतज़ार ही रहो तो
.. अच्छा है
क्यूंकि वो कभी -
कहीं नहीं जाता
हरदम साथ रहता है
" तुम " बन कर
तुम्हारा कभी ना ख़त्म होने वाला
इंतज़ार बन कर

हाँ .. मुझे है तुम्हारा इंतज़ार
हमेशा की तरह
ख्वाबों में ही सही
पर तुम्हें पाने का .... इंतज़ार !!

गुन्जन
३/१०/११

प्यार का अंतहीन सफ़र ....



न सवालों का ज़वाब दो
न जवाबों से सवाल पूछो
अपने आप सारे प्रश्न चिन्ह
सिमट जायेंगे
और तुम फिर स्वतंत्र हो जाओगे
अपने आयामों को नापने के लिए
न बनो इस अंतहीन सफ़र के मुसाफिर
ये सफ़र विक्षिप्त कर देता है
सारी संवेदनाओं को
छिन्न-भिन्न कर देता है
जीते जी मानवीय इक़छाओं को
नरक में ला खड़ा करता है

क्यूंकि
इस सफ़र का ना कोई
..... आदि है
..... ना अंत

गुन्जन
१४/९/११

हाँ वो इक ख्वाब ही तो है



इक ख्वाब ही तो हैं
जिनमें वो जब मन होता है
तब चला आता है
... चहलकदमी करते हुए
अब यहाँ से भी उसे
खाली हाथ लौटा दूँ
नहीं .. इतनी कमज़र्फ मैं तो नहीं
इक उसी की जुस्तजू में तो
रातों का इंतज़ार किया करती हूँ
कि कब ख्वाब आयें
और कब .. वो
जानती हूँ
कि ख्वाब कभी पूरे नहीं होते
______

हाँ वो इक ख्वाब ही तो है
चलता - फिरता ख्वाब
इसलिए उस मखमली ख्वाब को
ख्वाबों में ही जी लेती हूँ मैं
खुद भी इक अदना - सा
ख्वाब बन कर .....

गुंजन
११/१०/११ —

मेरी आवारगी



आवारा धुन्ध -
फिर आकर लिपट गयी
मेरे वज़ूद के गिर्द
एक बार फिर
मुझे आवारा बनाने के लिए
तुम्हारी गली .....
तुम्हारे घर की दहलीज़ पर
पागलों की तरह
फिर .....
एक बार फिर ..
मुझे ले जाने के लिए

वो गली जिससे कभी
मैं गुज़र न सकी
वो दहलीज़ जिसे कभी
मैं छू भी ना सकी

एक तमन्ना जो
धुआं - धुआं हो गयी
इक ख्वाइश जो
कतरा - कतरा बन बह गयी ....

गुंजन
१२/९/११ —

अहसास



बेहतरीन अहसासों की गुनगुनाहट से
फिर भीग गयी मैं .... एक बार
मोती हमेशा देर से ही मिला करते हैं
तब जब उनकी उम्मीद नहीं होती
और जब ज़रूरत नहीं होती
..... तब माला बन
हमारे गले लगना चाहते हैं
अच्छा हो जो न समेटे इन्हें
ठंडी तासीर लिए
..... ये ठन्डे से मोती
हमसे हमारे जीवन की
ऊष्मा छीन ले जायेंगे
और हम फिर एक बार
स्तब्ध ... अवाक्
बिखर जायेंगे अपनी ही जमीं पर
अपने ही ख़ाली दामन को
समेटते हुए

बेरौनक
बेआवाज़
बेवजह
फिर उसी दहलीज़ को ताकते हुए
जो न हमारी हो सकी कभी
जो हम सी न बन सकी कभी

गुँजन
२०/१०/११

है ना - कृष्णा !!



अपने वज़ूद में
तुम्हें पाना चाहा
बस यही गलती थी मेरी
तुम तो मैं ... हो ही नहीं ना
हाँ मैं ज़रूर तुम हूँ
जहाँ चाहो - पा लो
जिस रंग में चाहो - ढाल लो
है ना - कृष्णा !!

गुँजन
२१/१०/११

...काश



अपनी ज़िन्दगी को
अपने हिसाब से जीने की
शर्त रखी थी ना तुमने
जी भी रहे हो .....
अब फिर कैसी शिकायत
_______

टूटी हुई मुंडेर पर बैठी
इक नन्ही चिड़िया को
डराया था तुमने उसकी
..... एक नादानी पर
हवाओं का रुख मोड़ दिया था
तुमने अपनी .... जिद के आगे
समंदर की बेचैन लहरें भी
तुम्हारे तेज़ से सहम
...... परे हट गयी थीं
अपनी अकुलाहट को ताक़ पर धर
अपने में ही सिमट कर रह गयीं थीं

काश की ये सब न हुआ होता
काश की तुम वक़्त रहते जान जाते
काश की ये होता
काश की वो होता
अब इस काश के सिवा बचा ही क्या है
मेरे पास !!

कुछ भी , कैसे भी करके
अब इस काश को पूरा नहीं कर सकती मैं ...काश

गुंजन
४/११/११ —

पुकार


इतनी पुकार पर तो
सूरज का घमंड भी
..... पिघलने लगा
पर तुम्हें न पिघलना था
और न पिघले कान्हा .. !!

गुंजन
११/११

बोलो ...... चलोगे क्या ?



आज मन फिर कुछ लिखने को हो रहा है
क्या ..... पता नहीं
क्यूंकि लिखने का मतलब लिखना नहीं
उन शब्दों में तुमको -
तुम्हारे साथ जीना होता है
हर रोज़ जब कुछ लिखती हूँ
तो लगता है की हाँ आज तुम्हारे साथ
..... कुछ कदम चल ली
..... तुम्हारे रु-ब-रु हो ली
जिस दिन शब्द खो जाते हैं
तो लगता है कि तुम रूठ गए ..

मन है आज फिर
तुम संग दो कदम चलने का
बोलो ...... चलोगे क्या ..... !!

गुंजन
१४/११/११

कोई और नहीं है ....... कृष्णा !!



कभी चाहूँ तुम - में बसना
कभी चाहूँ तुम - सी बनना
कभी चाहूँ जी - लूँ तुमको
कभी चाहूँ पा - लूँ तुमको
हर रंग में
हर रूप में
हर चाह में
हर राह में
बस तुम हो
तुम्हीं हो
कोई और नहीं है
....... कृष्णा !!

गुँजन
२१/१०/११

Tuesday 15 November 2011

खुबसूरत तोहफा



इतना आरोप, इतना संदेह
क्यूँ ..... ?
प्रश्न तो मुझे करने चाहिए ?
आक्षेप तो मुझे करना चाहिए ?
जीवन तो मेरा बदला है ना ?
तुम्हारा कहाँ .. ?
फिर भी हमेशा की तरह कटघरे में
मैं ही क्यूँ .... ?
________

क्या मेरा दर्द ... मेरे आँसू
सब बेमानी हैं !!
हाँ कह दो कि - सब खुबसूरत धोखा हैं
ओह्ह्ह्ह !!!!!
बेहतरीन तोहफा दे दिया ... तुमने तो मुझे आज
वो भी ज़िन्दगी के इस मोड़ पर आकर
तुमसे तो ये उम्मीद ना थी
ना ... कभी नहीं
कभी भी नहीं ....... !!

..... १५/११/११

Monday 14 November 2011

मृत्यु ....



मृत्यु को कितनी बार
आमंत्रित किया है मैंने
खुद भी नहीं जानती
_______

आज फिर से तुम्हारा
आह्वाहन कर रही हूँ
आओगी क्या मुझे लिवाने
मेरी मृत्यु ..... !!

.....
१४/११

Sunday 13 November 2011

कृष्ण का अन्तर्द्वंद



व्याकुल हो ना कृष्णा
क्यूंकि चाह कर भी
वो कह नहीं पाते
.... जो कहना चाहते हो
तुम्हारा अन्तर्द्वंद रोक लेता है तुम्हें
आखिर कृष्ण हो ना ..
देवता बनने के लिए
कोई तो बलिदान देना ही होगा
वही दिया भी !!
__________

और राधा ..
इस धरा पर बरसों से
प्रेम का मूर्त रूप
तो भला उसकी आँखों में
व्याकुलता कैसी ?
अगर है भी ....... तो बस
अपने कृष्ण की अकुलाहट को सुनने की
उनके मौन को समझ पाने की

अब तो मौन तोड़ो कृष्णा ....... !!

.. २२/१०/११

Saturday 12 November 2011

मेरे अंत समय में ..... मेरे द्वारे



तुम्हें कृष्ण कहती हूँ
तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगता ना !!
कृष्ण आराध्य हैं मेरे
और तुम्हारी -
तुम्हारी आराधना की है मैंने
अब तुम्हीं बताओ
क्या फर्क हुआ
तुम में और कृष्णा में .. ?
________

अपने अंत समय कृष्ण आये थे
...... यमुना किनारे
तो शायद तुम भी आ जाओ
मेरे अंत समय में .. मेरे द्वारे

बोलो आओगे ना ... ?

.....
१२/११/११

Saturday 5 November 2011

क्या हर बार तुम्हारा देवता बनना ज़रूरी है - कृष्णा ??



कृष्ण तो स्वयं में एक प्रश्न हैं
वो भला क्या उत्तर देंगे ..
कुरुक्षेत्र में गीता का प्रवचन दे
खुद तो ईश्वर बन बैठे
पर वृन्दावन में बिलखती
राधिका को छोड़
क्या उसकी नज़र में अराध्य बन पाए !!
_________

बोलो ज़वाब दो ...... कृष्णा ??
भले ही दुनिया तुम्हें ईश्वर कह ले
भले ही वेद - पुराण तुम्हें
महानता की श्रेणी में ला खड़ा करें
पर राधिका नहीं बुला सकती
तुम्हें कभी .... दिल से - ' देव '
हाँ प्यार करती थी वो तुम्हें ... पागलों की तरह
और हर जन्म में करती भी रहेगी
पर क्या हर बार तुम्हारा
देवता बनना ज़रूरी है !!!!!!!!!!!
बोलो कृष्णा .... ??
गीता सार में आत्मा की अमरता की
दुहाई दी थी तुमने
याद है कृष्णा .. ?
तब फिर क्यूँ लौटे थे
उस उफनती यमुना के किनारे
इंतज़ार करती उस पगली राधा के पास

प्रवचन देना आसन होता है कृष्णा
पर उसे निभाना और समझ पाना - बेहद मुश्किल

.....
४/११/११

Friday 4 November 2011

पनाह

गुंजन
३/१०/११


जब आयेंगे हम
एक - दूजे की बाँहों में
देखना वख्त कहीं
थम - सा जायेगा
ये दुनिया जो खुद पर
इतराती है ..... इतना
तब हमसे मुहब्बत के लिए
पनाह मागेंगी ....

.

Thursday 3 November 2011

माँ भी मैं ..... प्रिया भी मैं



जो तुम सो जाओगे
तो मुझे कविता कौन कहेगा
तुमसे ही तो जन्मी हूँ .. मैं
जो तुम हो तो हूँ .. मैं
अजन्ता की गुफाओं में भी
तुमने मुझे बुद्ध रूप में देखा
हमेशा से जानती हूँ
ऐसा सिर्फ तुम ही कर सकते थे

माँ भी मैं
प्रिया भी मैं
बालक भी मैं
रम्भा भी मैं
हह .... और कितने रूप में ढालोगे मुझे
और कितने रंगों से रंगोगे मुझे
तुम सी बन जाऊँ
.... अब बस इतना ही चाहूँ
तुम में ही कहीं खो जाऊँ
.... हाँ बस इतना ही चाहूँ

क्या अपना-आप दोगे मुझे
क्या अपनी बाँहों में लोगे मुझे

.....
२२/१०/११

Sunday 23 October 2011

" दीपावली "



कल रात स्वप्न में
दीपावली आई
रंग बिरंगे परिधानों में सजी
ढेर सारी रौशनी बिखेरती
झिलमिलाते आभूषणों से लकदक
पर पता नहीं क्यूँ बेहद उदास .. ?
आँखें छलकी जातीं थीं उसकी
बहुत पहले की बात है
सालों पहले इक शाम आई थी
उसके दरवाज़े पर ___

दो अनजान पाहुनों को साथ में लिए
इक निःशब्द शाम गुज़ारी थी उसने
..... उनके साथ
थमी सी - पर इतनी खुबसूरत
... जैसी आज तक कभी नहीं जी

उदास कल्पित दीपावली बोली -
" अब मन नहीं होता
उस गली, उस शहर में जाने का
बहुत याद आती है उन अनजान पाहुनों की
जाने किसके घर का दिया थे
हर रोज़ जलते थे .... पर कभी नहीं मिल पाते थे
आज भी जलते हैं .....
उनकी जलन अब मुझसे देखी नहीं जाती
जो इस बरस तुम शहर जाना
तो इक नन्हा सा दिया मेरे आंगन में भी धर आना
उनके खामोश पर पवित्र, प्यार के नाम का ..... "

गुँजन
२३/१०/११

Saturday 22 October 2011

आओगे क्या .. ?



जब जानते हो
तब जाते ही क्यूँ हो ..?
क्या मेरा बिलखना
तुम्हारे रिसते घावों को सहलाता है
अगर ऐसा है.....
तो ज़िन्दगी भर रोने को तैयार हूँ मैं
जो मंज़ूर हो .. तो आ जाओ

आओ तो पहले ...
फिर जाने की बात करना
थोड़ा मरहम मेरे ह्रदय पर भी लगा जाना
जो तुम्हारे तलवों में
रिसते घावों की वजह से
खुद भी टीसने लगा है

बोलो आओगे क्या .. ?

गुँजन
२२/१०/११

कृष्ण - कृष्ण कहलाऊँ



खुद को राधा कह पाऊँ
वो श्रेष्ठता कहाँ से लाऊँ
इतना तुम्हें चाहूँ
फिर भी ना तुम्हें पा पाऊँ .. ?

तुम्हारे नाम का सुमिरन करती
मैं तुम सी बन जाऊँ
ऐसा अब मैं क्या करूँ .. ?
जो स्वयं भी -
कृष्ण - कृष्ण कहलाऊँ

गुँजन
२१/१०/११

Thursday 20 October 2011

कैनवास



कितने चेहरे आये
मेरी जिंदगी के
कैनवास में
पर तेरे वज़ूद के सिवा
किसी और में
भर ही नहीं पाई
अपनी मोहब्बत के
रंग ..... मैं

गुंजन
२७/९/११

Monday 17 October 2011

माफ़ करोगे क्या मुझे ... मेरे प्रिय !!!!



आज धरा शांत है ....
कुछ कहने को नहीं बचा
... अब उसके पास
निस्तेज देखती है वो आज सूर्य को
कि कितना कुछ छुपा है
....... सूर्य के भीतर भी कहीं
जब कभी मन उचाट हो उठता है उसका
सूर्य का अंतहीन आह्वाहन करते - करते
एक अंतहीन इंतज़ार में चलते - चलते
तब बरस पड़ती है - वो
टूट कर बिखर जाती है - वो
और तब ..... सूर्य का प्रणय निवेदन
फिर उसे जीवन दान देता है !!

धरा है ना .....
पल में द्रवित हो फिर कह उठती है
माफ़ करोगे क्या मुझे ... मेरे प्रिय !!!!

गुँजन
१३/१०/११

Thursday 13 October 2011

अब तो जागो ..... मेरी प्यारी धरणी




कितनी सरलता से खुद को धरा बना लिया
और उसको जलता सूरज
कोई शक नहीं कि तुम कोमल धरणी हो
.... और वो सूर्य
पर जलती तो हमेशा से धरती ही आई है ना
सूरज कबसे जलने लगा भला
पुरुष रूप है ना....
अपना ताप तो दिखायेगा ही
बिन बात के धरा को तो वो जलाएगा ही
समंदर में डूबने का सिर्फ दिखावा करता है वो
आँखों से आँसू भला कभी छलके हैं उसके

प्यारी धरती
वो कहीं नहीं जाता
एक तरफ तुमसे नजरें चुराता है
तो दूसरी तरफ जाके किसी और के
गले लग जाता है
विश्वास करना अच्छी बता है
पर अन्धविश्वास .. ना - ना
कभी नहीं
जागो - जागो अब तो जागो
..... मेरी प्यारी धरणी

गुंजन
११/१०/११

Monday 10 October 2011

आधुनिक प्रेम


हम कितना भी आधुनिक क्यूँ ना हो लें
पर अपनी सीमायें कैसे भूल सकते हैं भला
तपन की आंच
..... और स्नेहिल स्पर्श
निश्चय ही दोनों प्रेम का स्वरुप हैं
पर आधुनिकता इस पर
हावी नहीं होने पाई ... कभी नहीं
भले ही कितनी दोपहरें बिता लें
...... किसी के साथ
पर खुबसूरत पलों का खून
कभी नहीं रिसने दिया ...
क्यूंकि प्यार को देखा है मैंने
कुछ पलों के लिए नहीं
कुछ सालों के लिए नहीं
कुछ जन्मों के लिए भी नहीं
एक दुसरे में आत्मसात होने जैसा होता है ये प्यार
( आत्मसात - आत्मा का संगम )

जिससे हो सर्वस्व हमारा
जिससे ही वर्चस्व हमारा
भला उसका खून ....... ना ना
ये तो संभव ही नहीं
और जो ऐसा करते हैं ...... वो पता नहीं
पर हाँ प्यार तो नहीं ही करते
.... कतई नहीं !!

गुंजन
७/१०/११

Friday 7 October 2011

सिली सी हँसीं



तुमने जो देखी होती
..... जो सुनी होती
मेरे मन की आवाज़
तो ये रूहें कभी न भटकतीं
तुम और मैं
कभी यूँ ना जी रहे होते
खाली, भीगे-से शरीर को लिए हुए
अब इन होठों पर कैसी भी हँसीं खेले
वो बेज़ान तो होनी ही है
..... सिली-सिली सी
_____

दीवार पर लटके मौसम की तरह
जो कहीं से आकर उससे निकली
कील पर अटक गया हो
_____

एक ऐसे सपने की तरह
जो पूरा होकर भी
बस सपना बन ... रह गया हो
!!

गुँजन
७/१०/११

Tuesday 4 October 2011

कुछ तो है मेरा .... बस मेरा


अपनी धुन
अपना साज़
अपना अंदाज़
यही ज़िन्दगी है मेरी
तू नहीं तो तेरी
बेरुखी ही सही
कोई तो है - मेरी
..... बस मेरी

गुन्जन
३०/९/११

Saturday 1 October 2011

तुम्हारे लिए .......



मेरी हर शोखी
हर अदा है
तुम्हारे लिए .......
ये मैं नहीं
तुम ही तो हो
जानां
जो मेरे जिस्म पर
काबिज़ हो
रूह बनकर .....

गुन्जन
१/१०/११

Wednesday 28 September 2011

तन-मन के साज़ पर .... रंग, धुन और नृत्य



जानते हो ...
बीती रात गए
मन के आँचल में
अनगिनित ख्वाब
सजाये मैंने
तुम्हारे लिए .......
कभी इधर
कभी उधर
न जाने कितने रंग बिखरे
मैंने अपनी चाहत के
पर कोई भी रंग
तुम्हें ना भाया
क्यूँ ...... ?
______

आज मन
फिर उदास है
लगा की कोई
धुन गुनगुनाऊं
अपने तन के साज़ पे
कोई गीत लहराऊं
शायद
इसे ही सुन
तुम आ जाओ
मेरे साथ दो कदम चलकर
मेरी खामोशियों को
सुन पाओ ....
समझ पाओ .....

बोलो आओगे क्या ...... ?

गुन्जन
२८/९/११

Tuesday 27 September 2011

दलदली यादें



इस थमी-सी लचर ज़िन्दगी
से ही तो परेशान हैं सब
पुरानी बूढ़ी हो चुकी यादें
दरकी हुई शाखों से लिपटी हुई
किस पल में हमें धरती पर ला पटकें
हम खुद भी तो नहीं जानते
__________

पकी उम्र की दहलीज़ पर खड़ी
..... वेश्या सी
अपने पेशेवर अंदाज़ में
नैनों के कटाक्ष,
उँगलियों की हरारत,
लाल - रिसते होठों से -
फाड़ खाने को उतारू
ये गलीज़ चुगलखोर ....यादें
लाल रसीले गुलाब की -
चादर से लिपटी हुई ,
पुरानी कब्र से उठती
लोबान की खुशबु सी ही
गमकती रहती हैं ये .... यादें
जिसके चारों तरफ
बिखरे से पड़े रहते हैं - हम
__________

क्यूँ .... ?
क्यूँ नहीं निकल पाते हम
इन दलदली यादों से बहार
क्यूँ बिखर बिखर जाते हैं
हम इनके सामने
क्यूँ सारी तेज़ी, सारी चपलता
सारा आत्मविश्वास
सब धरा का धरा रह जाता है
इनके सामने
पल-पल इनमें धंसते हुए
पल-पल इनसे बाहर आने की कोशिश में
कब हम भी उन जैसे हो जाते हैं
खुद भी नहीं जानते ..

यादों की दलदली सतह पर डूबते - उतारते
खुद ही के लिए एक नया दलदल बनाते
दलदल से हम ......

गुंजन
२६/९/११

Saturday 24 September 2011

" प्यार "



हाँ देव
प्यार वही है
जो इस
पल - छिन
बदलती
दुनिया ने
मुझमें देखा ..
जो तुम्हारे
आमूल - चूल
अस्तित्व ने
मुझसे पाया ..
क्यूंकि -
मैं ही तो हूँ
प्यार
______

इस धरा पर
सदियों से
ठहरी हुई -
मूर्त रूप में
सिर्फ
..... मैं ही हूँ
" प्यार "

गुंजन
१८/९/११

Friday 23 September 2011

आंसू



कल बड़ी देर तक
एक आंसू
मेरी आँख की कोर पर
अटका रहा
भरमाया सा
कई रोज़ बाद
तुझे देखा था
शायद इसलिए भी
पगला है .....
आज फिर
न जाने कितनी देर तलक
तेरी राह जोहता रहा

वाकई पागल है
तभी तो - आंसू है
बौराया सा .....

गुंजन
१६/९/११

Wednesday 21 September 2011

तुम्हारे लिए .......



रात होते ही
सितारों को टांग देती हूँ " मैं "
आसमान में हाथ बढ़ा कर
तुम्हारे लिए .......
मैं नहीं तो मेरे दुपट्टे के
सितारे ही सही
कोई तो हो जिनसे लिपट कर
तुम चैन की नींद सो पाओ .....

गुंजन
१६/९/११

Tuesday 20 September 2011

घमंडी यादें



प्रश्न तो वहीँ खड़ा है ना
यक्ष की भांति .... अनुत्तरित
ये यादें होती ही क्यूँ हैं .. ?
किसी के जाने के साथ
ये भी क्यूँ नहीं चली जातीं
क्यूँ नहीं जीने देती ये हमें
क्या रात ... क्या दिन .. !!
नहीं है हमें इनकी ज़रूरत
आखिर क्यूँ नहीं समझतीं .. ?
जब भी बेशर्म बन धकेलते हैं
हम इन्हें दरवाजे से बाहर
ये उतनी ही द्रुत गति से
पलट वार करती हैं
क्या दुसरे ... क्या तीसरे ... और क्या चौथे
जिस पहर भी आँख खुले
ये मुहँ बाये सामने खड़ी होती हैं
क्यूँ......?

___________

कहा ना ... चली जाओ
जिसके साथ तुम आयीं थीं
उसी के पास .. वापिस
तुम्हारे ना होने पर भी
मैं अकेली नहीं ......

समझना होगा तुम्हें
मेरा "मैं" मेरे पास है
और उसे कोई नहीं छीन सकता मुझसे
स्वयं ... तुम भी नहीं

....घमंडी यादें !!!!!!!

गुन्जन
२०/९/११

Monday 19 September 2011

मैं तुमसे प्यार करती हूँ



तुम्हें छू कर
तुमसे गुज़रती हूँ
न जाने क्यूँ ?
मैं ..... तुमसे
इतना प्यार करती हूँ

गुंजन
19/9/11

Sunday 18 September 2011

उलझी हुई गुत्थियाँ



कभी कभी सोचती हूँ
तो लगता है कि
ये गुत्थियाँ उलझी ही रहें
तो बेहतर है
सुलझे हुए ज़ज्बात कभी कभी
उलझा जाते हैं
खुद ही को
एक खालीपन का एहसास
छोड़ जाते हैं हम ही में कहीं
कि अब क्या...?
कि अब क्या बचा है ....... नया करने को

बेहतर है इसकी उलझी गांठों में
ढुंढते रहें हम बीते दिनों को
..... अच्छे या बुरे
जैसे भी हैं - आखिर अपने तो हैं
जो ये भी सुलझ जायें
तो गांठ (जेब) में बचेगा क्या .... ?
.... निरा खालीपन !!
.... सूनापन !!

जो तुम्हारे आने से पहले था - जीवन में
या था भी ...... पता नहीं

गुन्जन
१६/९/११

Friday 16 September 2011

मौन के भी शब्द होते हैं



हाँ मौन के भी "शब्द" होते हैं
और बेहद मुखर भी
चुन -चुन कर आते हैं ये उस अँधेरे से
जहाँ मौन ख़ामोशी से पसरा रहता है
बिना शिकायत -
बैठे-बैठे न जाने क्या बुनता रहता है .. ?
शायद शब्दों का ताना-बना

और ये शब्द विस्मित कर देते हैं
तब.... जब वो सामने आते हैं
प्रेम की एक नयी परिभाषा गढ़ते हुए
अथाह सागर ... असीमित मरुस्थल ... जलद व्योम
न जाने कितना कुछ
अपने में समेटे हुए .. छिपाए हुए
ओह ...... !!

जब सुना था उन्हें .... तब रो पड़ी थी मैं
हाँ मौन के भी शब्द होते हैं
और बेहद मुखर भी
कभी सुनना उन्हें
रो दोगे तुम भी ...... जानती हूँ मैं
अभी भी कितना कुछ समेटे हैं अपने भीतर
भला तुम क्या जानो .. ?

गुन्जन
१६/९/११

Thursday 15 September 2011

मैं बोनसाई नहीं ..... कदम्ब हूँ !!



तो आपको क्या लगता है...?
क्या मेरे शब्दों में
मेरे भावों में वो गहराई है..?
निश्चय ही - मेरे शब्द बोनसाई नहीं हैं
क्यूंकि भावों की कोम्पलें
नित नवीन प्रफुल्लित होती हैं ..
जडें भी बहुत गहरे तक हैं कहीं -
शायद इसलिए भी
_________

अब छांट भी तो नहीं सकती
वर्ना छिपे दर्द टीसने लगेंगे..

मैं चिनार नहीं
.........कदम्ब हूँ !!

जिसने अपने आगोश में
प्रेम की पराकाष्ठता को लिया था
इसलिए मैं बोनसाई बन ही नहीं सकती
बनना भी नहीं चाहती

निह्श्चय ही प्रेम विराट है
और द्रड़ भी.....
....... अब भी कोई शक है क्या ?

गुन्जन
१४/९/११

Wednesday 14 September 2011

ख्वाइशों की पौध


इमरोज़-अमृता
सोनी-महिवाल
हीर-राँझा
एडवर्ड-सिम्सन

विश्व - प्रसिद्ध
इन प्रेमी जोड़ों के बीज जो आप अपने
बंजर खेतों में बोने चली हो
उसमें एक बीज मेरे नाम का भी रोप लेना- "रश्मि दी"
भले ही मैं अकेली सही
पर खुद पर इंतना यकीं है
कि आपके सपनों के खेतों का
उत्क्रष्ट वृक्ष .... "मैं ही बनूँगी"
________

जब भी कोई पौध डिगने लगेगी अपने पथ से
हाड़ तोड़ बर्फीली हवाओं के डर से
तब मैं माँ बन उसे अपने आँचल में छिपा लूंगी
जब भी कोई झूमती-बलखाती बेल
मुरझाने लगेगी..तपते सूरज की गर्मी से
तब मैं पिता बन उसे अपनी छावं में ले लूंगी.....
कुछ भी - कैसे भी करके.. उन्हें
वख्त से पहले विदा ना होने दूंगी
(जैसा कि इतिहास गवाह है)
जो स्वप्न आपने अपनी आँखों में देखा है
उसके निशां ना मैं खोने दूंगी ......

बस इतनी सी गुज़ारिश है...
जो न्याय खुद के साथ न कर पाई
वो शायद अगले जन्म में कर पाऊँ
अब बस इतनी सी ही ख्वाइश है....


गुन्जन
१४/९/११

(मेरी ये कविता आदरणीय "रश्मि दी" को समर्पित है )

Saturday 10 September 2011

फिर क्यूँ .......कृष्णा !!



तुम ....... तुम्हारे ख्याल
महकते रहते हैं
हरदम
मेरे आस-पास
तो बोलो भला
तुम्हारे ख्यालों में लिपटी
फिर क्यूँ न महकूँ
मैं भी .....

_________


पारिजात के पुष्पों
से ही झड़ रहे थे
मेरे ख्वाब बीती रात गए
फिर क्यूँ तुमने इन्हें
शब्दों में गूँथ लिया
फिर क्यूँ इक नया ख्वाब
मेरी बंद होती
पलकों पे सजा दिया
फिर क्यूँ ......?

गुन्जन
१०/९/११