Friday 26 August 2011

फिर वही शब्दों का विहंगम जाल..........




आज फिर शब्द ना जाने क्यूँ चूक से गए हैं
शब्दों का विहंगम जाल
जो मैं हमेशा तुम्हारे आस-पास बुना करती हूँ
खाली प्रतीत होता है
वही शब्द...... कितनी बार दोहराऊँ
अपनी मन:स्तिथि
तुम्हें कितनी बार दिखलाऊँ

उस तुम को........ जो हो कर भी
कहीं है ही नहीं
_________

शब्दों की भी एक सीमा होती है
कहने की भी एक हद होती है
समझते-बूझते
क्यूँ उस 'तुम' को पुकारती हूँ
जो इस जीवन के रहने तलक
मेरा है ही नहीं ........
__________

अपने प्रिय की बात करते-करते
किसी का हृदय बिलखता है
तो किसी की आँखें बोझिल हो जाती हैं
पर मेरे तो अब अहसास तक टीसने लगे हैं
आत्मा का कम्पन निस्तेज़ करने लगा है
इस ____ जीवन को

जीते जी अपने शरीर से अलग होने की व्यथा
शायद किसी ने ना जानी होगी
पर मैं जी रही हूँ
इस सत्यार्थ के साथ

तुम ....... जो हो ही नहीं
उस "तुम्हारे" इंतज़ार के साथ
पर कब तक ............ आखिर कब तक ?

गुंजन
२६/८/११

5 comments:

  1. शब्दों की भी एक सीमा होती है
    कहने की भी एक हद होती है... पर हम कहाँ चुकने देते हैं शब्दों को , उसमें रंग भरते रहते हैं , फिर उसे नया अंदाज देते हैं ...
    कहने की हद ! होती तो है , पर हम हदों को कहाँ मानते हैं ... शायद की उम्मीद लिए कहते रहते हैं ... तब तक जब तक एक सन्नाटा न पसर जाए !

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  2. बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना....सच..शब्दों की तो एक सीमा होती ही है ...जिसके आगे वो सुनाई पड़ना,समझ आना बंद हो जाते हैं

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  3. तुम ....... जो हो ही नहीं
    उस "तुम्हारे" इंतज़ार के साथ
    पर कब तक ............ आखिर कब तक ?
    बहुत ही अच्‍छी रचना ।

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  4. शब्दों की भी एक सीमा होती है
    कहने की भी एक हद होती है
    समझते-बूझते
    क्यूँ उस 'तुम' को पुकारती हूँ
    जो इस जीवन के रहने तलक
    मेरा है ही नहीं ........

    bahut sudnar aur bhaav poorn..

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  5. कब तक .. आखिर कब तक ?
    रचना का यही सार है , सुंदर अभिव्यक्ति बधाई

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