Monday, 11 April 2011

वो लाल चमड़े से मढ़ा, छोटा सा डब्बा .......



वो लाल चमड़े से मढ़ा, छोटा सा डब्बा...
अलमारी के कोने में बेसुध पड़ा था

समेट के प्यारी सी यादों को तेरी
न जाने कबसे वो सोया हुआ था
देख के मुझको खिल सा गया वो
पास मेरे कुछ सिमट आया वो....

छु के देखा तो वो अब भी वहीँ था
बस ये कमबख्त - वक़्त ही
कुछ बदल सा गया था
वो तेरी लिखावट से सजा छोटा सा कागज़....
उसकी तहों में कुछ खो सा गया था

देखा तो उस-पे मेरा नाम छपा था
जो तेरे ही हाथों से कभी उसपे सजा था
सिमट सी गयी क्यूँ उसे देखकर 'मैं'
एक अनजानी ममता से क्यूँ महक सी गयी 'मैं'

जो वक़्त न आएगा कभी लौट के
एक उसके इंतज़ार में क्यूँ
ठहर सी गयी.....'मैं'

गुंजन
४/४/२०११

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