Tuesday, 10 May 2011
न जाने कैसा था, वह मन....... ?
न जाने कैसा था - वह मन
जो शाम ढले ही
ढूंढा करता था तेरा आंगन
आलियों-गलियों ढूंढा करता
तुझको पल-छिन, पल-पल वह मन
सोंधी-सोंधी सी तेरी खुशबू में
जाने क्यूँ खोया रहता था- वह मन
न जाने कैसा था - वह मन
पथरीली राहों से तेरी
कंकर-पत्थर चुनता - वह मन
शाम ढले फिर दुल्हन जैसे
सज जाता था वह पागल मन
न जाने कैसा था - वह मन
राह तकता उस सुदूर गाँव की
जिसमें था तेरा वो आंगन
बुरुंश के लाल फूलों से रंगकर
देता था खुद को नवजीवन
न जाने कैसा था - वह मन
सीढ़ीनुमा उन खेतों में बो
देता था सपने वह पागल मन
दाडिम के उन वृक्षों के गिर्द
ढूंडा करता था वह अपना जीवन-धन
न जाने कैसा था - वह मन
ढोलक पर पड़ती थापों के बिच
छम-छम नाचा करता था- वह मन
लाल बुंदकी वाली चुनरी पहन
खुद पे ही इतराता था- वह मन
न जाने कैसा था - वह मन
दीप जला के इस तन का
दुल्हन-सा बन जाता था- वह मन
दुल्हन की उस सज्जा में फिर
'गुंजन' बन आतुर हो आता था - वह मन
न जाने कैसा था - वह मन
जो शाम ढले ही
ढूंढा करता था तेरा आंगन ।
गुंजन
26/3/2011
Monday
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment