Tuesday 22 November 2011

...काश



अपनी ज़िन्दगी को
अपने हिसाब से जीने की
शर्त रखी थी ना तुमने
जी भी रहे हो .....
अब फिर कैसी शिकायत
_______

टूटी हुई मुंडेर पर बैठी
इक नन्ही चिड़िया को
डराया था तुमने उसकी
..... एक नादानी पर
हवाओं का रुख मोड़ दिया था
तुमने अपनी .... जिद के आगे
समंदर की बेचैन लहरें भी
तुम्हारे तेज़ से सहम
...... परे हट गयी थीं
अपनी अकुलाहट को ताक़ पर धर
अपने में ही सिमट कर रह गयीं थीं

काश की ये सब न हुआ होता
काश की तुम वक़्त रहते जान जाते
काश की ये होता
काश की वो होता
अब इस काश के सिवा बचा ही क्या है
मेरे पास !!

कुछ भी , कैसे भी करके
अब इस काश को पूरा नहीं कर सकती मैं ...काश

गुंजन
४/११/११ —

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