तुमने जो देखी होती
..... जो सुनी होती
मेरे मन की आवाज़
तो ये रूहें कभी न भटकतीं
तुम और मैं
कभी यूँ ना जी रहे होते
खाली, भीगे-से शरीर को लिए हुए
अब इन होठों पर कैसी भी हँसीं खेले
वो बेज़ान तो होनी ही है
..... सिली-सिली सी
_____
दीवार पर लटके मौसम की तरह
जो कहीं से आकर उससे निकली
कील पर अटक गया हो
_____
एक ऐसे सपने की तरह
जो पूरा होकर भी
बस सपना बन ... रह गया हो
!!
गुँजन
७/१०/११
तुम खुद में रहे, मैं तुम्हारे इर्दगिर्द ...
ReplyDeleteएक सिली हँसी आज भी मेरे साथ है
तुम तो हँसी से कोसों दूर हो...
प्रेम और प्रेम से परे का यही तो फर्क है
दीवार पर लटके मौसम की तरह
ReplyDeleteजो कहीं से आकर उससे निकली
कील पर अटक गया हो
बेहतरीन ... ।
बेहतरीन कविता।
ReplyDeleteसादर
एक ऐसे सपने की तरह
ReplyDeleteजो पूरा होकर भी
बस सपना बन ... रह गया हो
!!
बहुत ही सुंदर...
सिली सी हँसीं शीर्षक ने ही भिगो दिया।
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बढिया