Friday, 7 October 2011

सिली सी हँसीं



तुमने जो देखी होती
..... जो सुनी होती
मेरे मन की आवाज़
तो ये रूहें कभी न भटकतीं
तुम और मैं
कभी यूँ ना जी रहे होते
खाली, भीगे-से शरीर को लिए हुए
अब इन होठों पर कैसी भी हँसीं खेले
वो बेज़ान तो होनी ही है
..... सिली-सिली सी
_____

दीवार पर लटके मौसम की तरह
जो कहीं से आकर उससे निकली
कील पर अटक गया हो
_____

एक ऐसे सपने की तरह
जो पूरा होकर भी
बस सपना बन ... रह गया हो
!!

गुँजन
७/१०/११

6 comments:

  1. तुम खुद में रहे, मैं तुम्हारे इर्दगिर्द ...
    एक सिली हँसी आज भी मेरे साथ है
    तुम तो हँसी से कोसों दूर हो...
    प्रेम और प्रेम से परे का यही तो फर्क है

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  2. दीवार पर लटके मौसम की तरह
    जो कहीं से आकर उससे निकली
    कील पर अटक गया हो
    बेहतरीन ... ।

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  3. बेहतरीन कविता।

    सादर

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  4. एक ऐसे सपने की तरह
    जो पूरा होकर भी
    बस सपना बन ... रह गया हो
    !!
    बहुत ही सुंदर...

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  5. सिली सी हँसीं शीर्षक ने ही भिगो दिया।

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