Monday, 10 October 2011

आधुनिक प्रेम


हम कितना भी आधुनिक क्यूँ ना हो लें
पर अपनी सीमायें कैसे भूल सकते हैं भला
तपन की आंच
..... और स्नेहिल स्पर्श
निश्चय ही दोनों प्रेम का स्वरुप हैं
पर आधुनिकता इस पर
हावी नहीं होने पाई ... कभी नहीं
भले ही कितनी दोपहरें बिता लें
...... किसी के साथ
पर खुबसूरत पलों का खून
कभी नहीं रिसने दिया ...
क्यूंकि प्यार को देखा है मैंने
कुछ पलों के लिए नहीं
कुछ सालों के लिए नहीं
कुछ जन्मों के लिए भी नहीं
एक दुसरे में आत्मसात होने जैसा होता है ये प्यार
( आत्मसात - आत्मा का संगम )

जिससे हो सर्वस्व हमारा
जिससे ही वर्चस्व हमारा
भला उसका खून ....... ना ना
ये तो संभव ही नहीं
और जो ऐसा करते हैं ...... वो पता नहीं
पर हाँ प्यार तो नहीं ही करते
.... कतई नहीं !!

गुंजन
७/१०/११

5 comments:

  1. जिससे हो सर्वस्व हमारा
    जिससे ही वर्चस्व हमारा
    भला उसका खून ....... ना ना
    ये तो संभव ही नहीं
    और जो ऐसा करते हैं ...... वो पता नहीं
    पर हाँ प्यार तो .... कतई नहीं करते

    बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ।

    सादर

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  2. जिससे हो सर्वस्व हमारा
    जिससे ही वर्चस्व हमारा
    भला उसका खून ....... ना ना
    ये तो संभव ही नहीं
    और जो ऐसा करते हैं ...... वो पता नहीं
    पर हाँ प्यार तो .... कतई नहीं करते...कटु सच कहती पंक्तिया.....

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  3. साथ हो लेना प्यार नहीं
    गर प्यार है - तो साथ ना हो तो भी साथ है

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  4. सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई ......

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  5. सच कहा…………सुन्दर अभिव्यक्ति।

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