Monday, 17 October 2011

माफ़ करोगे क्या मुझे ... मेरे प्रिय !!!!



आज धरा शांत है ....
कुछ कहने को नहीं बचा
... अब उसके पास
निस्तेज देखती है वो आज सूर्य को
कि कितना कुछ छुपा है
....... सूर्य के भीतर भी कहीं
जब कभी मन उचाट हो उठता है उसका
सूर्य का अंतहीन आह्वाहन करते - करते
एक अंतहीन इंतज़ार में चलते - चलते
तब बरस पड़ती है - वो
टूट कर बिखर जाती है - वो
और तब ..... सूर्य का प्रणय निवेदन
फिर उसे जीवन दान देता है !!

धरा है ना .....
पल में द्रवित हो फिर कह उठती है
माफ़ करोगे क्या मुझे ... मेरे प्रिय !!!!

गुँजन
१३/१०/११

7 comments:

  1. धरा है ना .....
    पल में द्रवित हो फिर कह उठती है
    माफ़ करोगे क्या मुझे ... मेरे प्रिय !!!
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति , बधाई

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  2. धरा सारे अनुनय विनय आवेश के बाद प्रेम के वश में होती है ....

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  3. धरा का संवाद अच्छा लगा ..

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  4. सार्थक अभिवयक्ति.....

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  5. गहरी अभिव्यक्ति ...

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