Tuesday 22 November 2011

मेरी आवारगी



आवारा धुन्ध -
फिर आकर लिपट गयी
मेरे वज़ूद के गिर्द
एक बार फिर
मुझे आवारा बनाने के लिए
तुम्हारी गली .....
तुम्हारे घर की दहलीज़ पर
पागलों की तरह
फिर .....
एक बार फिर ..
मुझे ले जाने के लिए

वो गली जिससे कभी
मैं गुज़र न सकी
वो दहलीज़ जिसे कभी
मैं छू भी ना सकी

एक तमन्ना जो
धुआं - धुआं हो गयी
इक ख्वाइश जो
कतरा - कतरा बन बह गयी ....

गुंजन
१२/९/११ —

3 comments:

  1. एक तमन्ना जो
    धुआं - धुआं हो गयी
    इक ख्वाइश जो
    कतरा - कतरा बन बह गयी ....हर बार यही कहती हूँ बहुत बहुत अच्छी रचना.... पर सिर्फ इतना कहना काफी नही होता आपकी रचनायो के लिए..... सभी रचनाये बहुत ही गहन अभिवयक्ति होती.... है.....

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  2. तुम्हारे घर की दहलीज़ पर
    पागलों की तरह
    फिर .....
    एक बार फिर ..
    मुझे ले जाने के लिए ................बहुत खूब!!

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