Tuesday, 30 August 2011

प्रेम का महारास शारीरिक या आत्मिक.......?



अच्छा कृष्णा
एक बात तो बताओ
क्या प्रेम शारीरिक आकर्षण से बंधा होता है ?
क्या उम्र का गुणा-भाग इसे कम या ज्यादा कर देता है ?
क्या मेरा तुम्हारे प्रति जो प्रेम है वो शारीरिक है ?
ओह्ह
तब तो ये प्रियवंद जन
करोड़ों देवताओं कि उपस्थिति में
विशाल कदम्ब की छाओं में
पवित्र वैतरणी के किनारे हुए उस
महारास को भी प्रेम ना मानकर
सिर्फ और सिर्फ स्त्री और पुरुष का
समागम ही मानते होंगे

ह़ा कृष्ण ........ !!
ये सम्पूर्ण विश्व क्या कभी
इस शरीर से परे किन्हीं और मापदंडों की
कल्पना भी कर सकता है ?
प्रेम का दावा करने वाले
इन बुधिदीप्त जीवों का समूह
क्या कभी "प्रेम" का "प्र" भी समझ पाया है ?
जिसमें सम्पूर्ण विश्व का सार छिपा है.........

"प्रेम" शब्द से बहने वाले निर्झर प्रकाश से
ये सम्पूर्ण विश्व आलोकित हो रहा है
और उससे उठने वाली गुंजन से आंदोलित
जिसने इस "प्रेम" के "प्र" को भी जान लिया
वो तो स्वामी हो गया ना
वो तो ईश्वर हो गया
वो तो आराध्य हो गया.....कान्हा

तभी तो तुम आराध्य हो
और तुम्हारे वो भक्तगण भी....देव
जो उस महारास की रात्रि
अपने घर-द्वार, बाल-गोपाल,
बंधू-बांधव, लाज-शर्म, अपना-आप
इन सब का चोला उतर कर
तुम्हारे पास चली आयीं थीं
___________

काश की ये विश्व उस महारात्रि के
महारास का भी साक्षी रहा होता
तो आज ये प्रेम को कभी भी
शारीरिक आकर्षण से ना जोड़ता
तभी तो आज तक तुम्हारा और राधा का प्रेम
अदुतीय है....अनोखा है.....अबोला है
अनचीन्हा है.....स्वर्णिम है
और

मेरा और तुम्हारा - "अजित"

गुंजन
३०/८/११

Monday, 29 August 2011

मकड़ ज़िन्दगी .......




सम्बन्ध क्या होते हैं - नहीं जानती
रिश्ते क्या होते हैं - ये भी नहीं जानती
बस अगर कुछ जाना है
इस छोटे से जीवन में
तो वो निरा-कोरा एक शब्द है___ प्यार

इसी शब्द को लेकर जी है
ये छोटी-सी मकड़ ज़िन्दगी
हाँ जाले भी बुने हैं
मन - भर कर बुने हैं
______

क्यूंकि इसके सिवा
कुछ कर भी तो नहीं सकती थी
कुछ और करने को बचा भी तो नहीं था

तुम बिन __ कृष्ण

गुंजन
४/८/११

Friday, 26 August 2011

फिर वही शब्दों का विहंगम जाल..........




आज फिर शब्द ना जाने क्यूँ चूक से गए हैं
शब्दों का विहंगम जाल
जो मैं हमेशा तुम्हारे आस-पास बुना करती हूँ
खाली प्रतीत होता है
वही शब्द...... कितनी बार दोहराऊँ
अपनी मन:स्तिथि
तुम्हें कितनी बार दिखलाऊँ

उस तुम को........ जो हो कर भी
कहीं है ही नहीं
_________

शब्दों की भी एक सीमा होती है
कहने की भी एक हद होती है
समझते-बूझते
क्यूँ उस 'तुम' को पुकारती हूँ
जो इस जीवन के रहने तलक
मेरा है ही नहीं ........
__________

अपने प्रिय की बात करते-करते
किसी का हृदय बिलखता है
तो किसी की आँखें बोझिल हो जाती हैं
पर मेरे तो अब अहसास तक टीसने लगे हैं
आत्मा का कम्पन निस्तेज़ करने लगा है
इस ____ जीवन को

जीते जी अपने शरीर से अलग होने की व्यथा
शायद किसी ने ना जानी होगी
पर मैं जी रही हूँ
इस सत्यार्थ के साथ

तुम ....... जो हो ही नहीं
उस "तुम्हारे" इंतज़ार के साथ
पर कब तक ............ आखिर कब तक ?

गुंजन
२६/८/११

Monday, 22 August 2011

जन्मों की तृप्ति .......



ओ कृष्णा.........मेरे प्यारे कृष्णा

आज सबने तुम्हें
तुम्हारे जन्मदिन की बधाईयाँ
अपने-अपने तरीके से दीं
और मैं......
मैं पागल जाने कौन सा
अनोखा तरीका खोजने में ही लगी रही
ये भी न जान पाई कि
__________

मेरी एक धुंदली-सी छवि ही
तुम्हें खुशियों से
सराबोर कर देती है
मेरी श्वांस का इक झोंका ही
तुम्हें वन-उपवन के
सारे पुष्पों की खुशबु का
उपहार दे जाता है
मेरी पायल की इक झंकार ही
तुम्हें संगीत के सप्त सुरों से
मदालस कर देती है
मेरे इक पान के बीड़े के आगे
तुम्हारे लिए छप्पन भोग भी
बेस्वाद हो जाते हैं
मेरी पीतल की गगरी का
सिर्फ इक घूंट पानी ही
तुम्हारे लिए स्वाति नक्षत्र की
बूँद जैसा बन जाता है

ओ कृष्णा..........मेरे प्यारे कृष्णा
मैं पागल ये भी न जान पाई कि

मेरा बस होना भर ही
तुम्हारी अतृप्त आत्मा को
जन्मों की तृप्ति दे जाता है____

गुंजन
२२/८/११

कई जन्म.....एक पल



कई जन्म लग गए
हमें तो अपनी रूह से मिलने में
और उसे एक पल भी नहीं लगा
जुदा होने में _______

गुंजन
21/8/11

Thursday, 18 August 2011

महीन शीशे से बने.......कुछ अधूरे-से सपने




जो कभी राह में तुम मिल जाओ
तो दूंगी तुम्हें..... वो सपने
जो कभी मेरे न हो सके

शायद तुम्हारे पंखों से लिपट के
उन्हें एक नया आसमान मिल सके
जिसके आयामों को नापते-नापते
उन्हें अपने सपने होने पर भरोसा हो सके

हाँ दूंगी तुम्हें.......मैं वो सपने
जो कभी मेरे ना हो सके
पर ध्यान रहे दोस्त
________

वो सपने हैं मेरे.........वो सपने हैं मेरे
महीन शीशे से बने
कुछ अधूरे-से सपने
ठिठुरते , कंपकपाते
माज़ी की इक गर्म रजाई में लिपटे हुए
ख़ाली बिस्तर की नर्म-नाज़ुक सिलवटों में
मेरे अकेलेपन के साथी

गुंजन
१७/८/११

Wednesday, 17 August 2011

गरम रजाई को ओढ़े हुए.....कुछ ठिठुरते हुए सपने




कुछ सपने धुन्द की रजाई
ओढ़े हुए ही रहना चाहते हैं

सुबह कब अपनी मरमरी बाहें फैलाये आ जाती है
औ रात कब नशीली हो जाती है
वो नहीं देखना चाहते
बल्कि वो इस मरमरी सुबह और नशीली रात को
जीना ही नहीं चाहते
क्यूंकि वो अपने ख्यालों से इतर
होना ही नहीं चाहते
__________

हाँ कुछ ऐसे ही हैं मेरे सपने
धुन्द की पतली-झीनी चादर को नहीं
बल्कि ख्यालों की
इक नरम, मुलायम
और गरम रजाई को ओढ़े हुए

जिसे न वो धो सकें और
न ही उसे किसी आज की अनचाही
खुरदुरी अलगनी पर सुखा सकें

ओह्ह ये सपने ...... मेरे प्यारे सपने

गुंजन
१७/८/११

Tuesday, 16 August 2011

अन्ना और गांधीजी .........




घर में कैद रहने की नहीं
अब बाहर निकलने की बारी है
ये बारिश नहीं
भारत माता की आँखों का पानी है

जिसे पोंछने आये 'अन्ना'
और उनसे जुड़े कुछ अपने जैसे
जो थे पहले अपने ही हाथों
अपने घर में कैदी जैसे

तो क्यूँ न अब हम भी
इन जंजीरों से आज़ाद हों
इस लिजलिजी सरकार के खिलाफ
हम भी 'अन्ना' के साथ हों

इस भ्रषटाचार रूपी अंग्रेजों का
अपने देश से करें बहिष्कार
बनकर वही 'सुभाष' और 'गाँधी'
स्थापित करें इक नयी सरकार

'गांधीजी' ने इक नारा दिया था
"अंग्रेजों भारत छोड़ो "
अब 'अन्ना' ने इक नारा दिया है
"भ्रषटाचार से मुहँ मोड़ो"

बदलाव तभी आयंगे
जब हम कुछ कर दिखने का
अपने अंदर "अन्ना" और "गांधीजी"
जैसा इक सिरफिरा-सा जूनून लायेंगे

गुंजन
१६/८/११

Friday, 12 August 2011

सखा भाव .......




ज़रूरी नहीं कि तुम्हारा साथ हो
इस आज में
बस तुम हो ..... हाँ हो
क्या ये काफी नहीं
_________

मेरे लिए
तुम्हारी छाया ही बहुत है
पागल मन को समझाने के लिए
तुम्हारे ख्याल ही बहुत हैं
अपने आज को सजाने के लिए

हाँ ........ कृष्ण
तुम्हारा ये सखा भाव ही बहुत है
इस वैतरणी को
पार करने के लिए

साथ दोगे मेरा ....... कृष्णा

गुंजन
११/८//११

Wednesday, 10 August 2011

मैं .....




साथ साथ मिलकर चलना ही जीवन को पाना है
ये बात सच है ...... पर सही हो
ये ज़रूरी तो नहीं

कई बार ज़िन्दगी अकेले गुज़ारने को भी कहते हैं
_______

खुद में .... खुद को जीने को भी कहते हैं
एक सांस ..... खुद के लिए लेने को भी कहते हैं
हाँ तुम्हारे साथ चलकर
मैंने इस दुनिया को पाया है
औ इससे जुडी हर ख़ुशी को भी

पर जीवन को पाया
खुद को .... खुद में जी कर
खुद के लिए .... एक नए सिरे से .... खुद को गुन कर
अपने लिए कुछ अनदेखे सपनों को .... बुन कर
अपनी ज़मीं अपना-आप खुद .... चुन कर

तो क्या ये जीवन को पाना नहीं ......?


गुंजन
10/8/11

Monday, 8 August 2011

अब फिर कैसी शिकायत......



हाँ उस coffee shop से चली आई थी मैं
तुम्हें अकेला छोड़ कर
ज़ज्ब करके अपने को अपने-आप में

लेकिन तुम्हें आज भी सिर्फ
तुम दिखे .......मैं नहीं
इस बरसती भीगी शाम में क्या
उस दिन भी नहीं ......
जब तुम्हारा हाथ उस गली के मोड़ पर छोड़ा था मैंने
________

तुम्हें अगर मैं कभी दिखी होती
तो आज बात कुछ और होती
हाँ फूलों से झड़ता पानी उन कपों में आज भी गिरता
पर तब हम-तुम
यूँ अपनी शाम को ज़ाया न कर रहे होते
समेट रहे होते
इक-दूसरे को.....
इक-दूसरे में.......
कहीं ना जाने देने के लिए

तब क्यूँ नहीं समझे थे तुम.....मुझे ?
तब क्यूँ नहीं रोका था तुमने.....मुझे ?

अब फिर कैसी शिकायत......

गुंजन
५/८/११

Saturday, 6 August 2011

युगों की व्यथा ........



क्या लिखूं कुछ सूझ ही नहीं रहा
कृष्ण की व्यथा ____ या अपनी
दोनों ही एक समान ,
एक-से बिन आत्मा के
________

आत्मा अमर है
पर जीते-जी कैसी और किसकी अमरता
औ मरने के बाद
कौन किससे मिल पाया है भला
नहीं जानती
इसलिए जीना चाहती हूँ
आज को...... आज में
_______

है ना कृष्ण....... तुम भी तो यही चाहते थे
तभी तो अंत समय वापस आये थे तुम
उसी कदम्ब वृक्ष के नीचे
अपनी 'सखी' के पास
उसके 'कनु' बन कर
जिसकी रतनारी कलियों को
बिखेर देते थे तुम उसकी मांग में

आत्मा अज़र है......आत्मा अमर है 
ब्रहमांड को
आत्मा की अमरता का पाठ पढ़ाने वाला
खुद बिन आत्मा के जिया
कितने बरस , कितने युग

हाह.....बहुत वक़्त बिता
अब तो आ जाओ____ कृष्णा

गुंजन
६/८/११

Thursday, 4 August 2011

मैं ....... सिर्फ मैं



दूज के चाँद की
सांवली-सी रौशनी में
अधखुली खिड़की पर
सर को टिकाये
______

क्या तुम्हें दिखती हूँ
कभी - कहीं
मैं....... सिर्फ मैं

गुंजन
४/८/११

Wednesday, 3 August 2011

मैंने नहीं चाहा .......



मैंने कभी नहीं चाहा कि तुम मुझे यूँ
अपने वजूद में लिए-लिए घुमो
अपनी कल्पना में यूँ गढ़ो
अपने शब्दों में मुझे यूँ ढालो
अपने ख्यालों में........अपने घर-द्वार में
अपने-आप में मुझे यूँ जियो

मैंने नहीं चाहा......मैंने नहीं चाहा
________

मैंने तो हमेशा तुम्हारा सुख माँगा
हर हाल में सिर्फ तुम्हारा संग चाहा
अपने साथ.......
अपने-आप में तुम्हें जीना चाहा

पर तुम ही अटके रहे
उन गृह-नक्षत्रों की गूढ़ भाषा में
कभी किसी ग्रह की टेढ़ी द्रष्टि में
और कभी किसी ग्रह के गृह विस्थापन में

तो फिर आज क्यूँ
अपने हताश जीवन की दुहाई देते हो
क्यूँ ....... आखिर क्यूँ .......?

गुंजन
३/८/११

Monday, 1 August 2011

चोर मन........



क्यूँ दिन-रात जला करता है
ये मन मेरा
शायद
_______

तुझ में जलते सूरज की तपिश
वो चुरा लाया है
चोर जो ठहरा
ये कमबख्त - मन मेरा_______

गुंजन
२/८/११