Thursday, 30 June 2011
सावन.....
वो सावन के मौसम में गाना बजाना
मेहंदी से अपने हाथों को सजाना
वो झूले से महकती, अमुआ की डाली
कहाँ खो गयी वो अम्मा की गाली
कि जिससे सज़ा था बचपन हमारा
बड़ा ही प्यारा था, सफ़र वो सुहाना
न सखियाँ ही रही, अब वो पुरानी
प्यारा झुला भी बन गया
बीते बचपन की कहानी.........
गुंजन
29/6/11
Wednesday
Wednesday, 29 June 2011
मुद्दत.......
ये मुद्दत का
आसमान भी
कितना अंतहीन होता है
मैं जितनी मिटाती हूँ
लकीरें इसकी
वो उतना ही
विस्तृत होता जाता है......
गुंजन
29/6/11
Wednesday
Sunday, 26 June 2011
कमबख्त.....
ये आंसू भी
बड़े बेगैरत चीज़ होते हैं
कमबख्त.......
उन्हीं के लिए बहते हैं
जिन्हें इनकी कद्र नहीं होती
गुंजन
२६/६/११
बड़े बेगैरत चीज़ होते हैं
कमबख्त.......
उन्हीं के लिए बहते हैं
जिन्हें इनकी कद्र नहीं होती
गुंजन
२६/६/११
Wednesday, 22 June 2011
मैं और मेरा मन........
निर्बाध, निर्मल, नदी सी- मैं
तू है, पहाड़ी सोता- मेरे मन,
मैं बहती जाऊँ कल-कल, छल-छल
एक तू ही अविचल, सिमटा-सा- मेरे मन
जाड़ों की गुनगुनी धुप सी-मैं
तू भरी जेष्ठ सा, तपता- मेरे मन
ठिठुरते मौसम को, मुझसे ताप मिले
एक तू ही क्यूँ ? चैन न पता- मेरे मन
विस्तृत, नीलाभ गगन सी- मैं
तू है, स्वछंद, पक्षी सा- मेरे मन
मैं धीर धरे, नित ताकूँ तुझको
एक तू ही अधीर हो, उड़ता जाये- मेरे मन
कदम्ब की शीतल, छावं सी- मैं
तू एक भटकता मुसाफिर- मेरे मन
मेरी छावं तले, सबको ठौर मिले
एक तू ही क्यूँ ? ठहर न पता- मेरे मन
-गुंजन
१०/५/११
Tuesday
Wednesday, 15 June 2011
अमानत
उस दिन तुम फिर आये थे मेरे office में, हमेशा की तरह हम बहुत देर तक बात करते रहे थे.......पता नहीं क्यूँ...तब तुम मुझसे बात करने का बहाना ढुंढा करते थे.....मैं समझ नहीं पाती थी कि तुम ऐसा क्यूँ करने लगे हो.......प्यार तो मैं तुमसे करती थी न.....तुम तो नहीं.....फिर क्यूँ.....फिर क्यूँ तुम मुझसे बात करने के बहाने ढुंढने लगे थे ?
Well जो भी हो मैं बहुत खुश होती थी...जब तुम आते थे....मुझसे बात करते थे.....पूरी दुनिया, दुनिया क्या मेरी पूरी कायनात सिमट जाती थी तुम्हारे आस-पास......वक़्त ठहर-सा जाता था मेरा ।
उस दिन बात करते-करते.....न जाने क्या आया तुम्हारे मन में कि - मेरी एक book में अपने हाथों से मेरा नाम लिख दिया 'तुमने'
जानते हो.....क्या किया था तुमने ?
तुम्हारे जाने के बाद न जाने कितनी देर तक मैं, उस नाम को देखती रही थी, कितनी देर तक हाथों से उसको छूती रही थी । अपना ही नाम कुछ नया सा लगने लगा था....पता नहीं क्यूँ ?
क्यूँ लिखा था तुमने मेरा नाम.......यूँ अचानक से मेरी कॉपी पर । बताओ ना ।
जानते हो वो नाम........आज भी मेरे पास रखा है किसी अमानत की तरह....कि शायद कभी...जब हम मिलें तब उस नाम को देख तुम्हें मेरी याद आ जाये...याद आ जाये कि कभी किसी पगली, खामोश-सी लड़की को देख कर तुम्हारा......ठहरा-सा दिल भी धड़का था ।
क्या कभी याद आएगा तुम्हें कुछ ऐसा.......?
गुंजन
15/6/11
Tuesday, 14 June 2011
क्यूँ.... ?
क्यूँ आखिर......क्यूँ ?
ज़िन्दगी हरदम इतनी
हैरां रहा करती है
काटती रहती है
आपने आपको बिन बात
नदी के किनारे की तरह
पानी में उठती लहरों सी
बिन बात के डोला करती है
क्यूँ तेरी ख्वाइश करती है
क्यूँ तेरी तमन्ना करती है
बिन बात के हंसती है
बिन बात के रोती है
क्यूँ आखिर......क्यूँ
ज़िन्दगी इतनी परेशां
रहा करती है ?
.......गुंजन
Saturday, 11 June 2011
काश...काश के कोई लौटा दे
वो गली के मोड़ पर
टकराती हुई कुछ साईकलें
जिसमें छुपी होती थीं
प्यारे से दोस्तों की कुछ
कमीनी से मुस्कुराहटें
काश...काश के कोई लौटा दे
वो सलोने से चेहरे
वो दिलफरेब-सी आहटें
वो कच्चे अमरुद को देख
सधा गुलेल का निशाना
ओये-होए.... क्या खूब था
वो college का ज़माना
Coaching न होने पर भी
माँ से झूठा बहाना बनाना
वो classes में दोस्तों के साथ
Tables पीट-पीट के गाना गाना
काश......काश के कोई लौटा दे
वो भीगे से सावन में बेसाख्ता
किसी का नज़र आ जाना
वो एक कप चाय जिसको
पीते हम दोस्त-चार
जिसकी एक-एक घूंट को जीते थे
हम न जाने कितनी बार
वो लाला के समोसों को देख
टपकती-सी लार
काश...काश के कोई लौटा दे
वो घूंट भर की जिंदगी
वो समोसों के लिए
होती जूतम बाज़ार
वो ठिठुरती हुई सर्दियों की
भीगी सी शाम
जिसमें जीते थे हम
न जाने कितने मासूम-भरे अरमान
गुज़रते हुए वक़्त ने काहे छीन लिया
अपना वो प्यारा सा जहान
काश...काश के कोई लौटा दे
वो अनचीन्हे-से सपने
वो परियों का गुलिस्तान
गुंजन
11/6/11
Saturday
Friday, 10 June 2011
फ़ना.......
तेरी रूह से...मेरी रूह तक आती
ये सदा एक दिन मुझको
मुझसे फ़ना कर ले जाएगी
तू देखता ही रह जायेगा
उस पल को तब
जब न मैं होंगी
न मेरी आवाज़ तुझ तक जाएगी
ये बुतपरस्ती तेरी
ओ मेरे हमनवाज़
एक दिन तुझसे
मेरे होने का गुमां भी
छीन कर ले जाएगी
फारिग होकर ढूंढेगा
इस दुनिया में 'गुंजन' को जब
तब मेरी राख ही बस
तेरे दोनों हाथों में आएगी
तेरी रूह से....मेरी रूह तक आती
ये सदा एक दिन मुझको
मुझसे फ़ना कर ले जाएगी
गुंजन
12/5/2011
Thrusday
Thursday, 9 June 2011
कल की रात कुछ अजीब सी थी.........
कल की रात कुछ अजीब सी थी
दूर कहीं आवाज़ हुई थी
चाँद और तारों के टूटने की
एक आह भी सुनी थी
बहकी हुई हवा और जुगनू की
रजनीगंधा के मरे हुए फूलों की
खुशबू की चीत्कार भी
गूंजी थी- जेहन में.....
पर लगा कि नहीं ये तो बस
मेरा एक भ्रम है
जो हर रात उभरता है
मेरे अंतर्मन में
जिसको पीती हूँ रोज़
आंसुओं के रूप में.....
खुली आँखों से पनीले
सपनों को देखते हुए
गुज़रे हुए वक़्त की
दहलीज़ में झांकते हुए
मुट्ठीभर ख्वाइशों को
अंतस में संजोते हुए.....
वाकई कल की रात कुछ अजीब सी थी
गुंजन
9/6/11
Thrusday
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