Wednesday, 15 June 2011

अमानत


उस दिन तुम फिर आये थे मेरे office में, हमेशा की तरह हम बहुत देर तक बात करते रहे थे.......पता नहीं क्यूँ...तब तुम मुझसे बात करने का बहाना ढुंढा करते थे.....मैं समझ नहीं पाती थी कि तुम ऐसा क्यूँ करने लगे हो.......प्यार तो मैं तुमसे करती थी न.....तुम तो नहीं.....फिर क्यूँ.....फिर क्यूँ तुम मुझसे बात करने के बहाने ढुंढने लगे थे ?

Well जो भी हो मैं बहुत खुश होती थी...जब तुम आते थे....मुझसे बात करते थे.....पूरी दुनिया, दुनिया क्या मेरी पूरी कायनात सिमट जाती थी तुम्हारे आस-पास......वक़्त ठहर-सा जाता था मेरा ।
उस दिन बात करते-करते.....न जाने क्या आया तुम्हारे मन में कि - मेरी एक book में अपने हाथों से मेरा नाम लिख दिया 'तुमने'

जानते हो.....क्या किया था तुमने ?

तुम्हारे जाने के बाद न जाने कितनी देर तक मैं, उस नाम को देखती रही थी, कितनी देर तक हाथों से उसको छूती रही थी । अपना ही नाम कुछ नया सा लगने लगा था....पता नहीं क्यूँ ?
क्यूँ लिखा था तुमने मेरा नाम.......यूँ अचानक से मेरी कॉपी पर । बताओ ना ।

जानते हो वो नाम........आज भी मेरे पास रखा है किसी अमानत की तरह....कि शायद कभी...जब हम मिलें तब उस नाम को देख तुम्हें मेरी याद आ जाये...याद आ जाये कि कभी किसी पगली, खामोश-सी लड़की को देख कर तुम्हारा......ठहरा-सा दिल भी धड़का था ।

क्या कभी याद आएगा तुम्हें कुछ ऐसा.......?

गुंजन
15/6/11

4 comments:

  1. नाम को याद रखना आसान नहीं

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  2. what a beautiful piece of writing. Yeh sabhi bhaav maine bhi likhe hue hai; magar ek alag andaaz may. Thanks for sharing..........

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  3. अपने ठीक कहा सुनीलजी......पर उनके लिए जिन्होंने कभी प्यार ही नहीं किया हो.....

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  4. सादगी से लिखा कुछ कितना प्यारा हो सकता है न...एकदम निर्मल पहले प्यार जैसा कुछ.

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