Saturday, 11 June 2011

काश...काश के कोई लौटा दे


वो गली के मोड़ पर
टकराती हुई कुछ साईकलें
जिसमें छुपी होती थीं
प्यारे से दोस्तों की कुछ
कमीनी से मुस्कुराहटें
काश...काश के कोई लौटा दे
वो सलोने से चेहरे
वो दिलफरेब-सी आहटें

वो कच्चे अमरुद को देख
सधा गुलेल का निशाना
ओये-होए.... क्या खूब था
वो college का ज़माना
Coaching न होने पर भी
माँ से झूठा बहाना बनाना
वो classes में दोस्तों के साथ
Tables पीट-पीट के गाना गाना
काश......काश के कोई लौटा दे
वो भीगे से सावन में बेसाख्ता
किसी का नज़र आ जाना

वो एक कप चाय जिसको
पीते हम दोस्त-चार
जिसकी एक-एक घूंट को जीते थे
हम न जाने कितनी बार
वो लाला के समोसों को देख
टपकती-सी लार
काश...काश के कोई लौटा दे
वो घूंट भर की जिंदगी
वो समोसों के लिए
होती जूतम बाज़ार

वो ठिठुरती हुई सर्दियों की
भीगी सी शाम
जिसमें जीते थे हम
न जाने कितने मासूम-भरे अरमान
गुज़रते हुए वक़्त ने काहे छीन लिया
अपना वो प्यारा सा जहान
काश...काश के कोई लौटा दे
वो अनचीन्हे-से सपने
वो परियों का गुलिस्तान

गुंजन
11/6/11
Saturday

3 comments:

  1. इन यादों को संजों रखिये कभी यह बहुत काम आएँगी , एक गीत याद आ रहा है कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ...........

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  2. बिल्कुल सुनीलजी....ये यादें ही तो होती हैं ....जो हमें जीने का एक सशक्त सहारा देती हैं

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