Wednesday, 27 July 2011
अब कहते हो ...... शायद
शायद ....शायद......शायद
शायद तो होता है बहुत कुछ
सब अपने मन से ही सोच लिया तुमने
कभी तो
जानने की कोशिश करते तुम
कि मेरी दुनिया
तुम से ही शुरू होती थी
और तुम ही पर ख़त्म भी
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कभी देखा तो होता
कभी जाना तो होता
मैं - मेरा वज़ूद
सब तुमसे ही था
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मैं वो दुनिया देखना चाहती थी
जो तुम्हारी आँखों से नूर बनके बरसती थी
जो तुम्हारे आंगन में लगे तुलसी के चौरे पर
साँझ-सवेरे दिया बन जलती थी
जो तुम्हारे आस-पास बिखरे पानी में
कतरा-कतरा बन ठहरती थी
जो तुम्हारे होठों से लगी cigratte से
धुआं-धुआं बन उड़ जाती थी
जो तुमसे होकर मुझ तक पहुंचती थी
पर तुमने कभी वो सब दिखाया ही नहीं
अपना वो मानिंद हक़ जताया ही नहीं
और अब कहते हो कि शायद.......
गुंजन
२५/७/११
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क्या खूब कहा है आपने, चुभता है कहीं-कहीं.
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