Tuesday, 27 September 2011

दलदली यादें



इस थमी-सी लचर ज़िन्दगी
से ही तो परेशान हैं सब
पुरानी बूढ़ी हो चुकी यादें
दरकी हुई शाखों से लिपटी हुई
किस पल में हमें धरती पर ला पटकें
हम खुद भी तो नहीं जानते
__________

पकी उम्र की दहलीज़ पर खड़ी
..... वेश्या सी
अपने पेशेवर अंदाज़ में
नैनों के कटाक्ष,
उँगलियों की हरारत,
लाल - रिसते होठों से -
फाड़ खाने को उतारू
ये गलीज़ चुगलखोर ....यादें
लाल रसीले गुलाब की -
चादर से लिपटी हुई ,
पुरानी कब्र से उठती
लोबान की खुशबु सी ही
गमकती रहती हैं ये .... यादें
जिसके चारों तरफ
बिखरे से पड़े रहते हैं - हम
__________

क्यूँ .... ?
क्यूँ नहीं निकल पाते हम
इन दलदली यादों से बहार
क्यूँ बिखर बिखर जाते हैं
हम इनके सामने
क्यूँ सारी तेज़ी, सारी चपलता
सारा आत्मविश्वास
सब धरा का धरा रह जाता है
इनके सामने
पल-पल इनमें धंसते हुए
पल-पल इनसे बाहर आने की कोशिश में
कब हम भी उन जैसे हो जाते हैं
खुद भी नहीं जानते ..

यादों की दलदली सतह पर डूबते - उतारते
खुद ही के लिए एक नया दलदल बनाते
दलदल से हम ......

गुंजन
२६/९/११

5 comments:

  1. बेहतरीन और सार्थक अभिव्यक्ति ..

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  2. WAAH...DALADALI YAADEN...JIS MEN EK BAAR DHANS GAYE TO UBARNA MUSHKIL HOTA HAI...BEJOD RACHNA...

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  3. यादों की दलदली सतह पर डूबते - उतारते
    खुद ही के लिए एक नया दलदल बनाते
    दलदल से हम ......भावपूर्ण रचना....

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  4. गहन अभिव्यक्ति।

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  5. यादें पतवार हैं .... बिना उसके हम जीवन पार कर ही नहीं सकते ....

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